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________________ ८०८ ] [ जैन धर्म का मौलिक इतिहास-भाग ४ आर्या ने किसी आचार्य का अथवा श्रमण का स्पर्श कर लिया है तो वह प्राचार्य अथवा साधु अपवाद मार्ग की दृष्टि से मूलगुण विहीन नहीं माना जायगा। किन्तु "निर्वाण कलिका" के रचनाकार ने तो सदा-सदा के लिये प्रत्येक प्रतिष्ठाचार्य को सधवा स्त्रियों द्वारा, तैलअभ्यंग मर्दन एवं स्नान करवाने, आचार्य को स्वर्ण कंकण, स्वर्ण मुद्रिका धारण करने, हस्ती, अश्व शिबिका आदि परिग्रह ग्रहण करने, नितान्त अविरत देवों को नमन करने, इन्द्र को महानदियों एवं तीर्थों के पवित्रोदकपूर्ण कलश से स्नान करवाने आदि-आदि अनेक प्रकार के शास्त्र विरुद्ध, जिनाज्ञाप्रतिकूल, एवं श्रमणसंस्कृति की पवित्र स्वच्छ-अच्छ-समुज्ज्वल छटा पर प्रगाढ़ कालिमा पोतने वाले विधानों का विधान कर आगम अवहेलना अथवा उत्सूत्र प्ररूपणा की पराकाष्ठा से भी किस प्रकार बहुत आगे अपने कदम बढ़ा दिये हैं, यह प्रत्येक आगमनिष्ठ तटस्थ मनीषी के लिये मध्ययुग में भी एवं आज भी बड़ा ही चिन्ता का विषय रहा है। उसी चिन्ताजनक विचारमन्थन के परिणामस्वरूप पौर्णमिक गच्छ के संस्थापक चन्द्रप्रभसूरि ने वि० सं० ११४६ में क्रियोद्धार करते समय "निर्वाण कलिका" में उल्लिखित श्रमणसंस्कृति की पवित्रता को नष्ट करने वाले विधानों का कड़ा विरोध कर किसी पंच महाव्रतधारी श्रमण के स्थान पर श्रावक के द्वारा प्रतिष्ठा करवाने की परिपाटी प्रचलित की। चन्द्रप्रभसूरि द्वारा किये गये इस प्रकार के क्रियोद्धार के अनन्तर तो अनेक क्रियोद्धारकों ने पंचमहाव्रतधारी साधु के द्वारा प्रतिष्ठा किये जाने को पूर्णतः प्रागमविरुद्ध सिद्ध करते हुए अनेक प्रकार की अभिनव प्रतिष्ठा विधियों अथवा पद्धतियों का निर्माण किया। उन प्रतिष्ठा विधियों के निर्माण के अनन्तर तो "निर्वाण कलिका" बहुजनसम्मत एवं उपेक्षित कृति के रूप में अवशिष्ट रह गई। "निर्वाणकलिका" के रचनाकार ने तो अपनी इस कृति के प्रारम्भ में बिना किसी आगम, पूर्व, पूर्ववस्तु अथवा प्राभृत का नामोल्लेख करते हुए केवल इतना ही लिखा है : वर्धमानं जिनं नत्वा, समुद्धत्य जिनागमात् । नित्यकर्म तथा दीक्षां, प्रतिष्ठां च प्रचक्ष्महे ।।१।। प्रतिष्ठापद्धतिश्चैषा, श्रीमत्पाल्लिप्तसूरिणा ।' भव्यानामुपकाराय, स्पष्टार्थाऽऽख्यायतेऽधुना ।।२।। किसी भी विज्ञ जिनोपासक से यह तथ्य छिपा नहीं है कि वर्तमान में उपलब्ध किसी भी पागम में निर्वाणकलिका में प्रतिपादित प्रतिष्ठा पद्धति की बात तो दूर, कहीं प्रतिष्ठाविधान का नामोल्लेख तक नहीं है। इसी तथ्य को दृष्टिगत रखते हुए निर्वाणकलिका के पृष्ठपोषकों अथवा पक्षधरों ने अपना यह आधारविहीन अभिमत व्यक्त किया है कि विलुप्त पूर्वज्ञान के किसी प्राभृत से और संभवतः प्रतिष्ठाप्राभृत से सर्वप्रथम आर्य वज्रसूरि ने और तदनन्तर पादलिप्तसूरि Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002074
Book TitleJain Dharma ka Maulik Itihas Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj
PublisherJain Itihas Samiti Jaipur
Publication Year1995
Total Pages880
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size16 MB
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