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सामान्य श्रुतधर काल खड २ ]
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की आज्ञा है कि यदि किसी गच्छ का प्राचार्य, चाहे वह स्वयं अरिहन्त ही क्यों न हो, किसी भी कारण से स्त्री का स्पर्श करता है तो न केवल वह आचार्य ही अपितु उसका सम्पूर्ण गच्छ भी श्रमण-धर्म के मूल गुण से रहित है।" तदुपरान्त अपना बचाव करने के लक्ष्य से प्राचार्य कुवलयप्रभ ने कहा--- "इतना सब कुछ होते हुए . भी किसी बात को एकान्ततः पकड़ कर अड़े.रहना मिथ्यात्व की गणना में आ जाता है क्योंकि जिनेश्वर की आज्ञा, जिनेश्वर का आदेश नितान्त एकान्तता को लिये हुए नहीं अपितु अनेकान्तता से गर्भित है । वस्तुतः जिनेश्वर की आज्ञा में उत्सर्गमार्ग और अपवाद मार्ग-इन दोनों मार्गों के लिए स्थान रहता है, अवकाश रहता है।"
इसे थोड़ा स्पष्ट करते हुए प्राचार्य कुवलयप्रभ ने कहा- "उत्सर्ग मार्ग की दृष्टि से यदि किसी गच्छ के आचार्य ने, चाहे वह कितना ही बड़े से बड़ा और यहां तक कि अर्हत् ही क्यों न हो, किसी स्त्री का स्पर्श कर लिया हो तो न केवल वह प्राचार्य ही अपितु उसका सम्पूर्ण गच्छ श्रमण के ब्रह्मचर्य नामक चतुर्थ मूल गुण से रहित माना जायगा किन्तु अपवाद मार्ग की दृष्टि से यदि किसी आर्या ने श्रद्धातिरेक से भावावेशवशात् किसी प्राचार्य का अथवा किसी श्रमण का स्पर्श कर लिया हो तो वह क्षम्य होगा, न वह आचार्य मूल गुण से रहित माना जायगा और न उसके गच्छ का श्रमण-श्रमरणी समूह ही।"
___ श्रमणाचार से नितान्त विपरीत, विशाल चैत्यों के स्वामित्व, चैत्यों में नियतनिवास, प्राधाकर्मी आहार, प्रारम्भ-समारम्भ, परिग्रह मोह आदि घोर शिथिलाचार में आपाद-चूड़ निमग्न चैत्यवासी अपवाद मार्ग की दृष्टि से अपने नितान्त शिथिलाचारपूर्ण श्रमणाचार को समयोचित ठहराने की उत्कट अभिलाषा लिये वस्तुत: परमक्रियानिष्ठ आचार्य कुवलयप्रभ के मुख से “एगते मिच्छत्थं, जिणाणमाणा अणेगंता" इस वचन के अन्तर्गत यही कहलवाना चाहते थे कि जिनेश्वर ने धर्मतीर्थ की स्थापना के समय उत्सर्ग और अपवाद इन दोनों मार्गों का प्ररूपण किया था। उन चैत्यवासियों ने प्राचार्य कुवलयप्रभ के उपर्युक्त कथन से अपनी मनोकामना को फलीभूत समझ कर उनके जयघोषों से गगन को गुंजरित कर दिया।
चैत्यवासी तो पूर्ण रूपेण प्रसन्न एवं संतुष्ट हो गये किन्तु महानिशीथ के उल्लेखानुसार इस प्रकार के अशास्त्रीय विवेचन के परिणामस्वरूप आचार्य कुवलयप्रभ ने ऐसे घोर दुःखानुबन्धी दुष्कर्मों का बन्ध कर लिया जिनके कारण उन्हें असंख्यात काल तक प्रगाढ़ दुःखपूर्ण नरक, तिर्यन्च आदि योनियों में भटक-भटक कर दुस्सह्य दारुण दुःखों का पात्र बनना पड़ा।
। प्राचार्य कुवलयप्रभ ने तो “एगते मिच्छत्थं, जिणाणमारणा अणेगंता" इस वचन के माध्यम से केवल यही प्ररूपणा की कि यदि किसी भावातिरेकाभिभूता
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