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________________ ८०६ 1 [ जैन धर्म का मौलिक इतिहास - भाग ४ से स्नान करवाने आदि का विधान कर वस्तुतः सर्वज्ञ प्ररणीत आगमों के प्रति अपनी अनास्था - अवमानना प्रकट करने के साथ-साथ एक प्रकार से उत्सूत्र प्ररूपरणा ही की है । आचार्य कुवलयप्रभ ( सावद्याचार्य) विषयक, महानिशीथ में उल्लिखित आख्यान के सन्दर्भ में निर्वाणकलिकाकार द्वारा किये गये प्राचार्याभिषेक एवं प्रतिष्ठा आदि करने प्राचार्य के अंग-प्रत्यंगों का सुहागिन स्त्रियों द्वारा तैलाभ्यंग मर्दन करने, प्राचार्य को स्वर्णकंकण, स्वर्णमुद्रिका श्रेष्ठतम वस्त्र धारण करवाने, प्राचार्य द्वारा ब्रह्मा, यम, इन्द्र, वरुणादि देवों को नमस्कार करने, उन्हें फल, धूप नैवेद्य चढ़ाने, पवित्र तीर्थों एवं महानदियों के जल से इन्द्र को स्नान कराने, यक्ष, राक्षस, पिशाच डाकिनी शाकिनी यादि तक को बलि समर्पित करने आदि के विधानों पर विचार करने पर प्रत्येक विज्ञ के मन में इस प्रकार का विचार उत्पन्न होना स्वाभाविक ही है कि जब प्राचार्य कुवलयप्रभ को जिस प्रतिचार, दोष अथवा शास्त्रविरुद्ध प्ररूपणा के कारण असंख्यात काल तक भव भ्रमरण करना पड़ा, तो उनके ( कुवलयप्रभ के) उस अशास्त्रीय प्ररूपण से निर्वाणकलिकाकार के प्ररूपण अथवा शास्त्रीय विधान कितने अधिक घोर, कितने अधिक गम्भीर एवं कितने अधिक भव- भ्रमण करवाने वाले हैं । 甄 आचार्य 'कुवलयप्रभ के चरणों पर एक भावुका प्रार्या ने भावावेश में हठात् अपना सिर रख दिया । आचार्य कुवलयप्रभ को इस स्त्रीस्पर्श की आशंका तक भी नहीं होगी किन्तु उन्होंने आत्मशुद्धयर्थ उस अप्रत्याशित दोष के लिए मन ही मन प्रायश्चित्त अवश्य किया होगा “जत्थित्थि करफरिसं " - इस गाथा पर व्याख्यान देते समय कुवलयप्रभ को स्मरण हो आया कि इन सब चैत्यवासी श्रोताओं के समक्ष एक प्रार्या ने उनके चरणों का अपने मस्तक से स्पर्श किया था। इस प्रकार की स्थिति में यदि वे इस गाथा का यथावत् शास्त्रानुकूल विवेचन करेंगे तो ये वक्र प्रकृति के चैत्यवासी उन्हें पूर्व की ही भांति 'सावद्याचार्य' से भी अधिक अपमानजनक विशेषरण से अभिहित करने लग जायेंगे । वे घोर अपमान की आशंका से अभिभूत हो असमंजस में पड़ गये । चैत्यवासियों को तो मानो पूर्व अवसर प्राप्त हो गया था । वे पुनः पुनः आचार्य कुवलयप्रभ पर कर्कश स्वर में दबाव डालने लगे कि उस गाथा की व्याख्या की जाय । दुष्टों के हाथों होने वाले सम्भावित अपमान से न देख कुवलयप्रभ ने उस गाथा की यथार्थतः व्याख्या "एगंते मिच्छत्थं, जिणारणमारणा प्रणेता ।" आचार्य कुवलयप्रभ ने उन चैत्यवासियों के समक्ष उपर्युक्त गाथा की व्याख्या करते हुए कहा-“यह एक अनुल्लंघनीय एवं अपरिहार्य प्रागमिक प्रदेश है, जिनेश्वर Jain Education International बचने का और कोई उपाय करते हुए अन्त में कहा For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002074
Book TitleJain Dharma ka Maulik Itihas Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj
PublisherJain Itihas Samiti Jaipur
Publication Year1995
Total Pages880
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size16 MB
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