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________________ सामान्य श्रुतधर काल खंड २ ] [ ८०५ व्रतों में लवलेश मात्र भी दोष न लगे, इस दृष्टि से जैनागमों में बड़े कठोर नियमों का विधान किया गया है, इस तथ्य से तो प्रत्येक जैनधर्मावलम्बी भली-भांति अवगत ही है । प्रत्येक श्रमरण के लिये नवबाड़ विशुद्ध ब्रह्मचर्य का तथा षड्जीव निकाय के प्राणियों की रक्षा अर्थात् अहिंसा का जिस प्रकार का विशद् एवं सूक्ष्म निर्देश एवं विवरण जैनागमों से निहित है, उस प्रकार का सर्वांगपूर्ण निर्देश अन्यत्र कहीं दृष्टिगोचर नहीं होता । महानिशीथ की यह गाथा और इस पर जो हृदयद्रावक विवरण महानिशीथ में उल्लिखित है, इन सब से "निर्वाणकलिका" के रचनाकार अनभिज्ञ रहे हों, यह तो किसी भी दशा में विश्वास नहीं किया जा सकता । जैन जगत् में प्राचीन काल से ही प्राचार्य कुवलयप्रभ का आख्यान प्रसिद्ध रहा है कि चैत्यवासियों ने चैत्य निर्माण का उपदेश करने विषयक अपनी प्रार्थना के ठुकरा दिये जाने से किस प्रकार आचार्य कुवलयप्रभ का नाम सावद्याचार्य रख दिया, चैत्यवासियों ने अपने आन्तरिक विवाद का समाधान करने के लिये कालान्तर में जिस समय सावद्याचार्य को अपने यहां बुलाया उस समय एक आर्या ने उनके तपोपूत अलौकिक व्यक्तित्व से प्रभावित हो हठात् किस प्रकार उनके चरणों पर अपना मस्तक रख दिया, तदनन्तर चैत्यवासियों के समक्ष महानिशीथ पर प्रवचन देते समय प्राचार्य कुवलयप्रभ के समक्ष उपरिलिखित गाथा आई तो आर्या द्वारा अपने चरणों का स्पर्श किये जाने की बात का स्मरण आते ही किस प्रकार वे असमंजस में पड़ गये और इस संकटापन्न स्थिति से उबरने के लिये - " एगंते मिच्छत्थं, जिणारणमारणा अणेगन्ता" इस प्रकार की बात कह कर किस प्रकार उन्होंने असंख्यात काल तक भव-भ्रमरण करवाने वाले घोर कर्मों का बन्ध कर लिया, इन सब बातों का विस्तृत विवरण महानिशीथ में विद्यमान है ।" पंच महाव्रतों की निरतिचार रूपेण अनिवार्यतः परिपालना विषयक आगमिक प्रतीव सुस्पष्ट उल्लेखों और मध्यकाल में अधिकांश गच्छों, सम्प्रदायों अथवा परम्पराओं में पर्याप्तरूपेण लोकप्रिय रहे महानिशीथ के सावद्याचार्य ( कुवलयप्रभ) विषयक आख्यान के उपरान्त भी "निर्वारण कलिकाकार" ने पंच महाव्रतधारी प्रतिष्ठाचार्य को प्राचार्याभिषेक के समय सधवा स्त्रियों द्वारा तैलप्रभ्यंग, मर्दन स्नान आदि करवाने, स्वर्ण कंकण, स्वर्ण मुद्रिका धारण करवाने, ब्रह्मा, यम, इन्द्र आदि देवों को नमनपूर्वक बलि समर्पित करने, धूप, दीप जलाने, अपने हाथों पुष्प फलादि समर्पित करने, इन्द्र को अपने हाथों तीर्थों एवं महानदियों के जल १. जत्थित्थ करफरिसं, अंतरियं कारणे वि उप्पन्ने । रहा विकरेज्ज सयं, तं गच्छं मूल गुरण मुक्कं ॥ विस्तृत विवरण के लिये देखिये -- जैन धर्म का मौलिक इतिहास, भाग ३, पृ० ४६ से ५५ और ३५८ से पृष्ठ ३६३ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002074
Book TitleJain Dharma ka Maulik Itihas Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj
PublisherJain Itihas Samiti Jaipur
Publication Year1995
Total Pages880
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size16 MB
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