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सामान्य श्रुतधर काल खंड २ ]
[ ८०६ ने मूल मन्त्रों तथा प्रतिष्ठा आदि विधानों का चयन कर "निर्वाणकलिका" का निर्माण किया ।'
साम्प्रत काल में न तो पूर्वज्ञान का अस्तित्व रहा है और न प्रतिष्ठा प्राभृत आदि प्राभृतों का ही। केवल यही नहीं उपलब्ध एकादशांगी सहित, श्वेताम्बर परम्परा द्वारा प्रामाणिक माने जाने वाले आगमों में भी कहीं प्रतिष्ठा विषयक विधि-विधानों और यहां तक कि प्रतिष्ठा विधि का नामोल्लेख तक उपलब्ध नहीं होता । इसके साथ ही साथ यह भी एक निर्विवाद एवं सर्वसम्मत शाश्वत सत्य है कि तीर्थंकरों के वचन सभी अवस्थाओं तथा तीनों काल में अवितथ सत्य-तथ्य से प्रोत-प्रोत होते हैं, उनमें कभी किसी भी दशा में परस्पर विरोध की, विरोधाभास की गन्ध तक नहीं आ सकती, उनके अवितथ वचनों को संसार की कोई उच्च से उच्चतम शक्ति भी अन्यथा सिद्ध नहीं कर सकती। इस प्रकार की स्थिति में एकादशांगी के माध्यम से प्रत्येक पंचमहाव्रतधारी को जीवन पर्यन्त पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु और वनस्पति इन पांच स्थावरनिकाय के जीवों तथा त्रस निकाय के प्राणियों की न केवल हिंसा ही अपितु परितापना-किलामना तक से बचे रहने का, किसी भी स्त्री का किसी भी दशा में स्पर्श तक न करने का, पंचमहाव्रतधारी के अतिरिक्त किसी भी देशविरत एवं अविरत को कभी किसी भी दशा में नमन न करने
और हस्ती, अश्व, शिबिका, करकंकण, मुद्रिका आदि स्वर्णाभूषणों का ही नहीं अपितु कांणी कोड़ी तक का किसी भी प्रकार का कोई किंचित्मात्र भी परिग्रह न रखने का विश्वकल्याणकारी उपदेश करने वाले तीर्थंकर प्रभु श्रमण भगवान महावीर क्या दृष्टिवाद में, चतुर्दश पूर्वो में अथवा प्राभृतों में किसी भी प्राचार्य के लिये, किसी भी श्रमण के लिये इस प्रकार का उपदेश दे सकते हैं कि वह प्रतिष्ठा करवाने से पहले सुहागिन स्त्रियों के कर-कमलों से अपने अंग प्रत्यंगों में तैलमर्दन करवाये, उबटन लगवाये, स्नान करे, स्वर्ण कंकण एवं स्वर्णमुद्रिका तथा उत्तमोत्तम बहुमूल्य वस्त्र धारण करे, छत्र, चामर, हस्ती, अश्व, शिबिका आदि राजराजेश्वरोपभोग्य परिग्रह को भेंट स्वरूप में स्वीकार करे, ब्रह्मा, यम, वरुण, कुबेर आदि देवों को अनुक्रमश: नमः शब्द के उच्चारण के साथ उन सबको और यक्ष, राक्षस, पिशाच, शाकिनी आदि को भी बलि समर्पित करता हुआ उनसे प्रार्थना करे कि वे जिनप्रतिमा की रक्षा करें, 'तुट्टिकरा भवंतु सिवंकरा भवंतु' आदि तरह-तरह की प्रार्थना करे, दीप जलाये, धूप दे, पुष्प-फल चढ़ाये और अपने हाथों से पवित्रोदकपूर्ण कलश को भृगार के साथ पुनः पुनः घुमा कर यह कहता हुआ-"भो भोः शक्र यथा स्वस्यां
१. "निर्वाणकलिका" जैनशिल्पज्योतिषविद्यामहोदधि पू० जनाचार्य श्रीमज्जयसूरि के
उपदेश से इन्दौरनिवासी शेठ नथमलजी कन्हैयालाल रांका द्वारा ई० सन् १९२६ में प्रकाशित की भूमिका (रमापतिमिश्रः), और मोहनलाल, भगवान्दास झवेरीसोलिसिटर द्वारा लिखित इन्द्रोडक्शन ।
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