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________________ २. ] [ जैन वर्गका मानिक तिहास-भाग ४ किसी भी प्रतिष्ठाचार्य को प्रतिष्ठा कार्य में प्रवृत्त होने से पूर्व सुहागिन स्त्रियां निर्वाणकलिका में निर्दिष्ट प्रतिष्ठा विधि के अनुसार उबटन आदि अभ्यंग मर्दनानन्तर नहलाती थीं। प्रतिष्ठाचार्य को बहुमूल्य वस्त्रों से सुसज्जित कर उनके कर में स्वर्ण कंकण और अंगुली में स्वर्ण मुद्रिका धारण करवायी जाती थी। चन्दन बाला के उदाहरणीय-आदर्श अनुपम तप की अविस्मरणीय स्मृति अथवा उसके उद्यापन के प्रसंग पर स्वर्ण के सूप में स्वर्ण निर्मित मास (उड़द) बाकले भरकर स्वर्ण की बेड़ियां बनवाकर, रजत पात्र में केसर बादाम, पिश्ते, किसमिस आदि मेवों से मिश्रित पायस (खीर) भर कर, उसके उपरिदल पर छाई हुई गाढी मलाई पर स्वर्ण और रजत निर्मित पत्रों को रख कर, सम्पूर्ण महार्घ्य सामग्री पंच महाव्रतधारी गुरुओं को मोक्षदायक सुपात्रदान समझकर दान की जाती थी और गुरुजन "अहोदानं ! अहोदानं !" के गगनभेदी घोषों के बीच उस महाय॑ दान को दया द्रवित हो ग्रहण करते थे। सोने और चांदी से निर्मित ठोस भारी भरकम मर्तियां, अनबिधे अनमोल मोती आदि प्रचुर परिग्रह बड़े-बड़े प्राचार्य पंच महाव्रतधारी साधु अपने स्वामित्व में रखते थे। ४. पंच महाव्रतधारी गुरुओं के उपाश्रयों आवासों में बही बट के नाम से विख्यात बड़ी-बड़ी बहियों के अम्बार लगे रहते थे, जिनमें देश के कोने-कोने में फैले हुए भक्त गृहस्थों की, उनके परिवार के सदस्यों की नामावलियां, उनसे प्रति वर्ष प्रत्येक पावन एवं हर्षप्रद प्रसंग के उपलक्ष्य में आने वाली अथवा अपना जन्म सिद्ध अधिकार समझकर अनिवार्य रूपेण वसूल की जाने वाली राशि का तिथि सहित लेखा जोखा रहता था। वे गुरुजन अपने उन गृहस्थों को अपने परम श्रद्धालु भक्त समझते थे। यदि उन चेलों में से कोई किसी दूसरे साधु अथवा गुरु. से निश्चित धनराशि भेंट करने के पश्चात् किसी पारिवारिक अथवा धार्मिक विधि विधान का कृत्य या किसी भी कारणवशात् कोई अनुष्ठान करवा लेता तो परम्परागत गुरुओं द्वारा बड़ा बवंडर खड़ा कर दिया जाता था। श्रमण भ० महावीर द्वारा चतुर्विध धर्मतीर्थ की स्थापना किये जाने से पूर्व आर्यधरा पर यत्र-तत्र-सर्वत्र धर्म के नाम पर भौतिक कर्मकाण्डों का प्रचुर प्राबल्य अथवा बोलबाला था। प्रभु महावीर ने धर्मतीर्थ का प्रवर्तन करते समय उन सभी थोथे बाह्य कर्मकाण्डों को निपट निस्सार एवं नितान्त निरर्थक बताने के साथ-साथ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002074
Book TitleJain Dharma ka Maulik Itihas Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj
PublisherJain Itihas Samiti Jaipur
Publication Year1995
Total Pages880
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size16 MB
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