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________________ सामान्य श्रुतधर काल खण्ड २ ] [ ८०१ "....... उस्सग्गाववाएहि आगमे ठिो तुज्झेण याणह । एगते मिच्छत्थं, जिणाणमाणा प्रणेगन्ता।" उन्मार्गगामी चैत्यवासी तो उनके मुंह से यही कहलवाना चाहते थे, जिससे कि अपवाद मार्ग का अवलम्बन ले अपने अनागमिक शिथिलाचार को वे उचित बता सकें। वे चैत्यवासी तो कुवलयप्रभाचार्य के मुख से यह सुन कर आनन्दातिरेक से उन्मत्त हो अट्टहास करने लगे किन्तु आगम विरुद्ध बात कहकर कुवलय प्रभाचार्य ने सुदीर्घकाल तक भव भ्रमण कराने वाली पाप प्रकृतियों का बन्ध कर लिया। शिथिलाचारियों के सर्वातिशायी सर्वोच्च वर्चस्व, धर्म के नाम पर अधर्मपूर्ण प्रवृत्तियों का प्राबल्य एवं बाहुल्य, हठाग्रह, पारस्परिक विद्वेष एवं पूर्व के ज्ञान सेविहीन आचार्यों की कृतियों को आगमों के समकक्ष प्रामाणिकता प्रदान कर एकादशांगी की भाँति ही पंचांगी के कपोलकल्पित नाम से उनकी अंगरूप में मान्यता आदि जिस प्रकार की नितांत प्रतिकूल परिस्थितियां आचार्य कुवलय प्रभ के समक्ष थीं, ठीक उसी प्रकार की विपरीत परिस्थितियां लोकाशाह के समक्ष भी थीं। आचार्य कुवलयप्रभ, उन्हें उन्मार्गगामी चैत्यवासियों. द्वारा दिये गये "सावधाचार्य" के विशेषण से विचलित हो गये और अन्ततोगत्वा उन्मार्गगामियों से डर कर जिन प्ररूपित शाश्वत सत्य सिद्धान्त को असत्य की बलिवेदी पर चढ़ा दिया। किन्तु अतुल आध्यात्मिक बल के धनी लोकाशाह विरोधियों द्वारा दी गई-"लुम्पक" "लोपक" "लुंगा" आदि अशिष्ट एवं असभ्यतापूर्ण नाना प्रकार की गालियों और उन्हीं विरोधियों द्वारा उन्हें सत्पथ से विचलित करने के लक्ष्य से उनके विरुद्ध रचे गये अनेक प्रकार के षड्यन्त्रों एवं कुचक्रों के उपरान्त भी तिल मात्र भी सत्पथ से विचलित नहीं हुए। ऐसा आदरणीय एवं आदर्श आध्यात्मिक जीवन था लोंकाशाह का। यदि लोकाशाह ने निर्भीक हो साहस के साथ चतुर्विध संघ में व्याप्त विकृतियों को दूर करने के लिये शान्त धर्म क्रान्ति का सूत्रपात नहीं किया होता तो वे विकार, वे बुराइयां वस्तुतः बुराई की पराकाष्ठा को पार कर परे की ओर कहां तक बढ़ जाती इसका सहज ही अनुमान लगाया जा सकता है। उस दशा में आगम प्रतिपादित आध्यात्मिक आचार-विचार कहीं दृष्टिगोचर तक नहीं होता, क्रियानिष्ठ तपोपूत सन्त-सतियों के दर्शन तक आज दुर्लभ हो जाते । आज चतुर्विध संघ में जो विशुद्ध आगमिक आचार-विचार, शम-दम, त्याग-तपस्या निखिल भूत संघ के प्रति दयाकरुणा-मैत्री आदि जैनधर्म के प्राणस्वरूप-मूलभूत सिद्धान्तों के प्रति आस्था परिलक्षित होती है, वह वस्तुतः लोंकाशाह द्वारा शान्त क्रान्ति के माध्यम से प्रत्येक जैन धर्मावलम्बी के मानस में तरंगित की गई-उत्पन्न की गई अभिनव जागरण की नव-जीवन की अमिट लहर का ही प्रताप है। धर्मोद्धारक लोकाशाह द्वारा देशव्यापी सर्वांगीण शान्त धर्मक्रान्ति का सूत्रपात किये जाने से पूर्व Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002074
Book TitleJain Dharma ka Maulik Itihas Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj
PublisherJain Itihas Samiti Jaipur
Publication Year1995
Total Pages880
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size16 MB
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