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________________ ८०० ] [ जैन धर्म का मौलिक इतिहास-भाग ४ . प्राचार्य कुवलयप्रभ ने उन चैत्यवासियों के प्रागम विरुद्ध प्राचार-विचार से अवगत होते हुए भी बड़े साहस के साथ कहा-"भो भो पियंवए ! जई वि जिणालए .तहावि सावज्जमिणं णाहं वायामित्तेणं पि एयं पायरिज्जा।" यह सुनकर उन उन्मार्गगामी चैत्यवासियों ने कुवलय प्रभ प्राचार्य को "सावधाचार्य" के नाम से सम्बोधित करना प्रारम्भ कर दिया। उनका यह असम्मानजनक नाम चारों ओर प्रसिद्ध हो गया। कालान्तर में उन्हीं चैत्यवासियों के संघ ने अपने समक्ष उपस्थित हुई चैत्यालय में जीर्णोद्धार का कार्य साधु द्वारा किये अथवा न किये जाने विषयक समस्या को सुलझाने के लिये उन्हीं सावधाचार्य के नाम से लोक विश्रुत कुवलय प्रभ प्राचार्य को आग्रहपूर्ण प्रार्थना कर अपने नगर में बुलाया। जिस समय वे प्राचार्य उस नगर में पहुंचे उनकी अगवानी के लिये सामने पहुंचे हुए चैत्यवासी श्रमरण श्रमणियों में से एक श्रमणी ने उनके तपोपूत तीर्थंकरोपम भव्य व्यक्तित्व के प्रभाव से सुधबुध खो सहसा उनके चरणों पर अपना भाल रख दिया। स्वयं कुवलय प्रभ और सभी चैत्यवासी श्रमण आदि आश्चर्याभिभूत एवं अवाक् हो उसे देखते ही रह गये। किसी के मुख से कोई शब्द नहीं निकला। एक दिन कुवलय प्रभ आचार्य ने चैत्यवासियों के समक्ष महानिशीथ का वाचन प्रारम्भ किया । व्याख्यान देते समय निम्नलिखित गाथा कुवलय प्रभ आचार्य के सम्मुख आई जत्थित्थिकरफरिसं, अंतरियंकारणे वि उप्पन्ने । अरहा वि करेज्ज सयं, तं गच्छं मूलगुण मुक्कं । इस गाथा को देखते ही आचार्य कुवलयप्रभ दुविधा में पड़ गये। चैत्यवासियों ने उनकी कठिनाई को ताड़ लिया और इस गाथा पर व्याख्यान देने के लिए बारम्बार बल देने लगे । और कोई उपाय न देख कर आचार्य कुवलयप्रभ ने गाथा का अर्थ सुनाया। गाथा का अर्थ सुनते ही चैत्यवासी उन पर हावी हो कहने लगे—“स्मरण है आपको? उस दिन श्रमणी ने आपके चरणों पर अपना मस्तक रख कर आपका स्पर्श किया था। कहां रहा आपका मूल गुण ?" _प्राचार्य कुवलयप्रभ ने मन ही मन सोचा-"पहली बार आया था तब तो इन्होंने मुझे "सावधाचार्य" जैसा अपमानजनक पद प्रदान किया, अब इस बार न मालूम मेरा किस प्रकार का असह्य अपमान करेंगे" अपनी रक्षा का अन्य कोई मार्ग न देखकर अन्त में उन्होंने उत्सर्ग एवं अपवाद दोनों मार्गों को श्रमण-श्रमणी वर्ग के लिये स्वीकार करते हुए कहा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002074
Book TitleJain Dharma ka Maulik Itihas Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj
PublisherJain Itihas Samiti Jaipur
Publication Year1995
Total Pages880
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size16 MB
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