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सामान्य श्रुतधर काल खण्ड २ ]
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उनके लिये जन-जन के धर्म-जैन धर्म में साधु-साध्वी, श्रावक एवं श्राविक वर्ग रूप चतुर्विध धर्मतीर्थ के समस्त सदस्यों के जीवन में कहीं नाम मात्र 4. भी अवकाश न रखते हुए प्रत्येक साधकवर्ग के लिये उन भौतिक कर्मकाण्डों को हेय, अनाचरणीय एवं अहितकर बताया।
सर्वज्ञ-सर्वदर्शी तीर्थंकर भ० महावीर द्वारा न केवल जैन ही अपितु जन-जन के लिये हेय एवं अनाचरणीय बताये गये उन निस्सार भौतिक कर्मकाण्डों को द्रव्य परम्पराओं के सूत्रधारों ने ब्राह्मणिक कर्मकाण्डियों का अनुसरण एवं "विश्वकर्माप्रकाश", "शिल्पदीपक", आदि शिल्पविषयक विभिन्न ग्रन्थों का अनुकरण करते हुए, वीर निर्वाण की प्रथम सहस्राब्दि के पूर्ण होने से पूर्व ही अपना लिया । अपनाया भी ऐसी प्रबल पकड़ के साथ कि उन भौतिक आडम्बरपूर्ण बाह्य कर्मकाण्डों को आमूलचूल अध्यात्मप्रधान जैनधर्म के धार्मिक अनुष्ठानों का अभिन्न अंग ही बना लिया।
___ द्रव्य परम्पराओं की प्रादि जननी चैत्यवासी परम्परा के उन सूत्रधारों ने इतर परम्पराओं के कर्मकाण्डों का अन्धानुकरण कर जैनधर्म के विशुद्ध आध्यात्मिक स्वरूप को किस-किस प्रकार विकृत किया, इसका पर्याप्त परिज्ञान “निर्वाणकलिका" नाम की एक अति प्राचीन कही जाने वाली पुस्तक से अनायास ही प्राप्त किया जा सकता है । इसके लिये कोई विशेष श्रम की आवश्यकता नहीं । क्योंकि
"निर्वाणकलिका" की प्रत्येक पंक्ति, उसका एक-एक शब्द, एक-एक अक्षर पाठक को पुकार-पुकार कर कह रहा है कि जिनेन्द्र नामांकित परिधान अथवा साटिका के अतिरिक्त उसका सर्वज्ञ-सर्वदर्शी वीतराग प्रभु श्रमण भ० महावीर द्वारा संस्थापित चतुर्विध धर्मसंघ से किसी प्रकार का कोई दूरातिदूर का भी सम्बन्ध नहीं है । निर्वाण कलिका में स्थान-स्थान पर ब्रह्मा, ब्रह्माणी, इन्द्र, वरुण, कुबेर, यमराज, नागमुख्य, भल्लाट, सोम, दिति, अदिति, मरीचि, सविता, सावित्र, विवस्वान्, रुद्र, रुद्रदास, कुमुद, अन्जन, चमर, पुष्पदन्त आदि देवी-देवियों की पंच महाव्रतधारी प्रतिष्ठाचार्य द्वारा (जिसे इसी कृति के शब्दों में संसार के सर्वोत्कृष्ट महिमास्पद पद आचार्य पद पर अभिषिक्त कर गौतमादि गणधरों तुल्य महनीय बताया गया है) नमस्कारानन्तर की गई पूजा अर्चा और न केवल इन देव-देवियों को ही अपितु यज्ञ, राक्षस, तम्बुरु, पिशाच, डाकिनी आदि तक को बलि समर्पित किये जाने तथा
१. षड्विशंदुज्ज्वलमहागुणरत्नघुर्यं रेतन्पदं प्रथितगोतममुख्य पुभि ।
आसेवितं सकलदुःखविमोक्षणाय, निर्वाहणीयमशठं तवतापि नित्यम् ॥१॥ नास्मात्पलाज्जगति साम्प्रतमस्ति किंचिदन्यत्पदं शुभतरं परमं नराणाम् ।
-निर्वाण कलिका, पत्र ६ (१ और २)
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