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________________ सामान्य श्रुतधर काल खण्ड २ ] [ ७६७ - कडुवामत की पट्टावली के उपयुद्ध त उल्लेख से, लंकामत कुलक में निहित विवरण से और तपागच्छ लोंकागच्छ आदि अनेक पट्टावलियों के इस प्रकार के उल्लेखों से कि वि० सं० १५०८ में लंका लोकाशाह से लुंकामत प्रचलित हुआ, उन सभी पट्टावलियों और विद्वानों की कृतियों के वे विवरण नितान्त निराधार एवं असत्य सिद्ध होते हैं, जिनमें उल्लेख है कि वि० सं० १५२७, १५२८ अथवा १५३० में लोकाशाह ने शास्त्रों का लेखन प्रारम्भ किया और वि० सं० १५३१ में लंकामत प्रचलित हुआ । वस्तुतः इस प्रकार का उल्लेख करने वाले लोंकागच्छीय पट्टावलीकारों के सिर पर भस्मग्रह का भूत सवार रहा । लुकागच्छ के विद्वानों से भिन्न अन्य विद्वानों के पास इस प्रकार का उल्लेख करने के पीछे अन्धानुकरण के अतिरिक्त अन्य कोई आधार नहीं था। इस प्रकार की सुस्पष्ट स्थिति में भविष्य में लोकाशाह के जीवन-चरित्र पर और लोंकागच्छ के परिचय पर लेखनी चलाते समय इस बात का ध्यान रखना परमावश्यक हो जायगा कि वे इस प्रकार के तथ्य-विहीन निराधार उल्लेखों को किसी प्रकार का महत्व न दें। लोकाशाह ने वि० स० १५०८ में एकमात्र इसी उद्देश्य से परम शान्त धर्मक्रान्ति का सूत्रपात किया कि विश्वकल्याणकारी जैन धर्म के मूल स्वरूप में वीर निर्वाण सं० १००० के पश्चात् जो बुराइयां प्रविष्ट करा दी गईं थीं चतुर्विध धर्म संघ में धर्म के नाम पर दोषपूर्ण प्रवृत्तियों, आडम्बरपूर्ण ऐसे अनुष्ठानों का प्रचलन हो गया था जिनसे पृथ्वी, अप, तेजस, वायु और वनस्पतिकाय के एकेन्द्रिय (स्थावर) प्राणियों की और इन पांचों स्थावरकाय के प्रारम्भ समारम्भ से स्थावरकाय के आश्रित त्रसजीवों की हिंसा, विराधना, अवश्यम्भावी है, इस प्रकार की बुराइयों को सदोष प्रवृत्तियों को समाप्त किया जाय । लोकाशाह द्वारा प्रारम्भ की गई वह धर्म क्रांति स्वल्पकाल में ही सफल हई। लोंकाशाह द्वारा प्रदर्शित उस विशुद्ध एवं मूल आगमिक प्रशस्त पथ के अनुयायियों की संख्या लाखों से ऊपर पहुंच गई किन्तु लोंकाशाह ने किसी गच्छ अथवा मत की स्थापना नहीं की। उन्हें विश्वास था कि उस शान्त धर्मक्रान्ति से सम्पूर्ण चतुर्विध संघ के मानस में एक व्यापक परिवर्तन पायेगा। उस मानसिक परिवर्तन के परिणामस्वरूप एक न एक दिन सम्पूर्ण जैन संघ साम्प्रदायिक अभिनिवेश, गच्छव्यामोह से पूर्णतः विमुक्त हो तीर्थं प्रवर्तनकाल में श्रमण भगवान महावीर द्वारा प्ररूपित और गणधरों द्वारा आगमों में प्रतिपादित धर्म के विशुद्ध स्वरूप को मानने लग जायगा। उनकी आशा के अनुरूप हर्षकीर्ति प्रमुख पंन्यास पद विभूषित विद्वान् श्रमणोत्तम, अनेक अज्ञात नामा श्रमण तथा लाखों श्रावक-श्राविकागण दोषपूर्ण प्रवृत्तियों का, अपने-अपने परिग्रह लोलुप शिथिलाचारोन्मुखी गच्छों का परित्याग कर आगम प्रतिपादित विशुद्ध-निर्दोष विकृति-विहीन धर्म पथ के पथिक बन गये। किसी नये गच्छ की, नये संगठन की स्थापना करना वस्तुतः पहले से ही बहुत बड़ी संख्या में विद्यमान गच्छों की संख्या में वृद्धि करने और संघ में व्याप्त विभेद को और बढ़ाने तुल्य होगा, इसी विचार Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002074
Book TitleJain Dharma ka Maulik Itihas Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj
PublisherJain Itihas Samiti Jaipur
Publication Year1995
Total Pages880
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size16 MB
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