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________________ ७६८ ] | जैन धर्म का मौलिक इतिहास-भाग ४ से लोकाशाह ने लोगों के पूछने पर स्वयं को और अपने आप को जैन अथवा जिनमती की संज्ञा से ही अभिहित किया। जिन शिथिलाचारपरायण लोगों के द्रव्यार्जन में, परिग्रह बढ़ाने में इस शान्त दान्त धर्मक्रान्ति के व्यापक प्रसार के परिणामस्वरूप बाधा पहंची थी, उन लोगों ने लोंकाशाह द्वारा विशद्ध आगमिक धर्म पथ पर आरूढ़ किये गये उन जिनमती जैनों के समूह को लुंम्पक गच्छ अथवा लुंकागच्छ के नाम से अभिहित करना प्रारम्भ किया। लोकाशाह का एवं लोकाशाह द्वारा शुभाशय से प्रारब्ध शान्तिपूर्ण क्रान्ति का जैन धर्म के महान् सिद्धान्तों के प्रति, जिनेश्वर के प्रति और जिनेश्वर द्वारा प्रदर्शित एवं गणधरों द्वारा आगमों में निबद्ध विश्वहितैषी जैन धर्म के प्रति प्रगाढ़ आस्था रखने वाले प्रत्येक जैन ने अगाध आह्लादपूर्ण अन्तर्मन से स्वागत किया । षड्जीव निकाय के जीवों ने विशेषतः पांच स्थावर निकाय के जीवों ने, जिनका कि शताब्दियों से धर्म के नाम पर अन्धाधुन्ध संहार होता चला आ रहा था और जिसे समाप्त करने के उद्देश्य से लोकाशाह ने दयाद्रवित हो धर्मक्रान्ति का सूत्रपात किया था, लोकाशाह के प्रति हार्दिक आभार प्रकट करते हुए उन्हें मूक मुद्रा में अनेकानेक शुभाशीर्वाद दिये। जिन शिथिलाचारपरायण और परिग्रह के अम्बार में पानख शिख धंसे नामधारी श्रमणों की सुख-सुविधा में, पूजा-प्रतिष्ठा में लोंकाशाह के उपदेशों से कमी आई, उन्होंने लोकाशाह को पानी पी-पीकर कोसा, उन पर असभ्यतापूर्ण अपशब्दों की झडी सी लगा दी। लोकाशाह के विरुद्ध विविध प्रकार के षड़यन्त्र किये। किन्तु अमित आत्मवली साहसपुञ्ज लोकाशाह इससे कभी किंचित्मात्र भी विचलित नहीं हुए। वे तो गीता में वर्णित प्रजहाति यदा कामान्सर्वान् पार्थ मनोगतान् । आत्मन्येवात्मना तुष्टः, स्थितप्रज्ञस्तदोच्यते ।। दुःखेष्वनुद्विग्नमना, सुखेषु विगत स्पृहः । वीतरागभयः क्रोधः, स्थितधि, निरुच्यते ।। यः सर्वत्रानभिस्नेहस्तत्तत्प्राप्य शुभाशुभम् । नाभिनन्दति न द्वेष्टि, तस्य प्रज्ञा प्रतिष्ठिताः ।। स्थित प्रज्ञता को अपने अन्तर्मन में संजाये धर्मप्राण लोंकाशाह कर्मण्येवाधिकारस्ते, मा फलेषु कदाचन । मा कर्मफल हेतुर्भूर्मा, ते संङ्गोऽस्त्वकर्मणि ।।। इस वचन के अनुसार नितान्त निलिप्त-निस्संग. भाव से महान् कर्मयोगी बने हुए विशुद्ध मूल प्रागमिक जिन प्ररूपित जैनधर्म के पथ पर जन-जन को प्रारूढ एवं अग्रसर करने में जीवनभर अहर्निश निरत रहे । "मित्ती मे सव्व भूएसु, वेरं मझ न केणइ," यह जैनत्व का प्रतीक विश्वबन्धुत्व का भाव तो लोकाशाह की Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002074
Book TitleJain Dharma ka Maulik Itihas Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj
PublisherJain Itihas Samiti Jaipur
Publication Year1995
Total Pages880
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size16 MB
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