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________________ ७९६ ] [ जैन धर्म का मौलिक इतिहास-भाग ४ युग प्रधान माना जाय । १५१४ से १५२४ तक कडुवा सामान्य संवरी रहा और १५२४ से सं. १५६४ तक कडुवा मत का प्राचार्य रहा। ऐतिहासिक दृष्टि से कडुवा मत की पट्टावली का यह उल्लेख बड़ा ही महत्वपूर्ण है । इससे निर्विवाद रूपेण यह सिद्ध हो जाता है कि वि. सं. १५१४ से पहले ही लोंकाशाह द्वारा प्रारम्भ की गई शान्त धर्मक्रान्ति सफल हो चुकी थी। लोकाशाह द्वारा पुनः प्रकाश में लाये गये जैनागमों में प्रतिपादित जैन धर्म के मूल स्वरूप को मानने वालों की संख्यां इतनी बढ़ चुकी थी अथवा इतनी द्रुतगति से बढ़ती चली जा रही थी कि उसके बढ़ते हुए वेग को देखकर प्रायः अन्यान्य सभी गच्छों के अधिनायक अपने-अपने गच्छ के अस्तित्व को संकटापन्न स्थिति में अनुभव करने लग गये थे। “पौर्णमिक आदि उपर्युक्त पांच गच्छों के प्राचार्यों और लुंका में से अर्थात् इन लुका आदि छः में से किसको युगप्रधानाचार्य माना जाय ?" पंन्यास हरिकीर्ति द्वारा कडुवाशाह से किया गया यह प्रश्न जहां एक ओर लोंकाशाह और उनके अनुयायियों की लोकप्रिय संगठित शक्ति की ओर संकेत करता है, वहीं दूसरी ओर सत्यान्वेषी शोधप्रिय विद्वानों का इस दिशा में गहन खोज के लिए भी आह्वान करता है कि क्या वि. सं. १५१४ से पहले वे श्रमण धर्म में दीक्षित भी हो चुके थे। क्योंकि हरिकीति के प्रश्न में प्रयुक्त "युग प्रधान" शब्द परोक्षापरोक्ष रूप से उनके मुनि होने का संकेत इस दृष्टिकोण से करता है। जैन परम्परा में युग प्रधान पद के लिये केवल श्रमण धर्म में दीक्षित विद्वान का नाम ही लिया जा सकता है । आशा है शोधप्रिय विद्वान इस विषय में गहन खोज का प्रयास करेंगे। पंन्यास हरिकीति अपने समय के विश्रुत आगम मर्मज्ञ, वयोवृद्ध एवं बड़े ही निस्पृह श्रमणोत्तम थे। उन्होंने कडुवाशाह जैसे प्रतिभा सम्पन्न मेधावी विरक्तात्मा सर्वथा सुयोग्य शिक्षार्थी को, उसके द्वारा किये गये अनुरोध के उपरान्त भी शिष्यलोभ का संवरण कर, पढ़ा-लिखा कर अधिकारिक विद्वान् बना देने के अनन्तर भी, शिष्य के रूप में श्रमण धर्म में दीक्षित नहीं किया। उसे जीवनभर श्रावक के वेश में संवरी बने रहने का ही परामर्श दिया। इससे उनकी महानता प्रकट होती है। इस प्रकार की स्थिति में पंन्यास हरिकीति के इस कथन में किसी प्रकार के संशय के लिए कोई किंचित्मात्र भी अवकाश नहीं रह जाता कि विक्रम सं० १५१४ में लोंकाशाह द्वारा पुन: प्रकाश में लाये गये विशुद्ध मूल जैन धर्म के अनुयायियों का संगठन एक बड़ा ही शक्तिशाली संगठन बन गया था, जिसे कि लोंकाशाह के जीवनकाल में विरोधियों ने द्वेषवश लुम्पक मत, लुंगा गच्छ और कालान्तर में सम्भवतः उनके स्वर्ग गमन के पश्चात् उनके अनुयायियों ने ही लोंकाशाह की स्मृति को चिरस्थायी बनाये रखने के लिये लोंकागच्छ नाम प्रदान किया। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002074
Book TitleJain Dharma ka Maulik Itihas Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj
PublisherJain Itihas Samiti Jaipur
Publication Year1995
Total Pages880
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size16 MB
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