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________________ सामान्य श्रुतधर काल खण्ड २ ] लोकाशाह [ ७८७ विरोधी एवं मूल आगमों से नितान्त विपरीत मान्यताएं प्रचुर मात्रा में विद्यमान हैं तो उन्होंने सर्वज्ञ सर्वदर्शी श्रमण भ० महावीर द्वारा प्ररूपित, गणधरों द्वारा ग्रथित एवं चतुर्दश पूर्वधरों तथा दशपूर्वधरों द्वारा द्वादशांगी से निर्दृढ़ आगमों को ही सर्वोच्च प्रामाणिक एवं परम मान्य स्वीकार करने के साथ-साथ पूर्वो के विच्छेद अथवा अन्तिम पूर्वधर आचार्य देवद्धि क्षमाश्रमण के वीर नि० सं० १००० के उत्तरवर्ती काल में हुए प्राचार्यों की कृतियां होने के कारण नियुक्तियों, वृत्तियों, चूणियों एवं भाष्यों को अमान्य घोषित किया। निष्पक्ष दृष्टि से श्वेताम्बर और दिगम्बर दोनों ही परम्पराओं के प्राचीन ग्रंथों के उल्लेखों पर विचार किया जाय तो गणधरों, चतुर्दश पूर्वधरों और कम से कम १० पूर्वधरों द्वारा तीर्थंकर के उपदेशों के आधार पर गुम्फित आगमों को अंग के नाम से अभिहित किया जा सकता है । आगमों में गणिपिटक को द्वादशांगी की संज्ञा से अभिहित किया गया है। वीर निर्वाण सं० १००० से उत्तरवर्ती प्राचार्यों की कृतियों को अंग की संज्ञा देकर उन्हें प्रागमों के तुल्य महत्व देना और आगमों के साथ रखकर उन्हें पंचांगी की संज्ञा देना वस्तुतः सर्वज्ञ भाषित परम पवित्र आगमों की प्राशातना करने तुल्य अपराध है । द्रव्य परम्पराओं द्वारा धर्म के वास्तविक मूल आगमिक स्वरूप में प्रविष्ट की गई विकृतियों को आगम वचन तुल्य ही सर्वमान्य एवं प्रामाणिक ठहराने के लक्ष्य से द्रव्य परम्पराओं के सूत्रधारों ने नियुक्तियों, भाष्यों, वृत्तियों एवं चूरिणयों को आगमों के समकक्ष प्रामाणिक सिद्ध करने के उद्देश्य से पंचांगी की कल्पना की है। आगमों में द्वादशांगी, एकादशांगी का उल्लेख तो दृष्टिगोचर होता है किन्तु पंचांगी के नाम का कोई संकेत तक भी उपलब्ध नहीं होता। लोकाशाह ने नियुक्तियों, भाष्यों, वृत्तियों और चूणियों को अमान्य घोषित करने के साथ-साथ पंचांगी नाम को भी अमान्य घोषित किया । द्रव्य परम्पराओं का अस्तित्व तो वस्तुतः पंचांगी पर ही निर्भर करता है। नियुक्तियां आदि तो उन्हें आगमों से भी अधिक प्रिय हैं, इसी कारण उन्होंने जान-बूझकर लोकाशाह के विरुद्ध यह निराधार मिथ्या प्रचार किया कि लुंका शास्त्रों को नहीं मानता। । जहां तक दान को मानने न मानने का प्रश्न है लोंकाशाह ने द्रव्य परम्पराओं द्वारा अपनी बाड़ेबन्दी के दुर्लक्ष्य से प्रतिष्ठा पद महोत्सवादि अवसरों पर प्रभावना के नाम पर स्वर्ण मुद्राएं, रौप्य मुद्राएं आदि लोगों को दान में देना अथवा बांटना प्रारम्भ किया तो इस प्रकार के दान का लोकाशाह ने विरोध किया। जहां तक सामायिक और पौषध का प्रश्न है लोंकाशाह ने कभी कहीं इनका निषेध नहीं किया। लोकाशाह के लगभग समसामयिक कडुवाशाह ने "वि० सं० १५३६ में, नाइलाई (नाडोलाई) नामक नगर में लोंकाशाह के अनुयायी लोंका Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002074
Book TitleJain Dharma ka Maulik Itihas Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj
PublisherJain Itihas Samiti Jaipur
Publication Year1995
Total Pages880
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size16 MB
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