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[ जैन धर्म का मौलिक इतिहास-भाग ४ को मूलतः नष्ट करने वाली थीं। इतना सब कुछ होते हुए भी यह बड़े आश्चर्य की बात रही कि उस समय के प्रायः सभी गच्छों ने एकजुट हो जिस प्रकार का घोर विरोध, जिस प्रकार का मिथ्या प्रचार लोकाशाह के विरुद्ध किया, उसका शतांश भी पावचन्द्रसूरि के विरुद्ध नहीं किया। तत्कालीन प्राचार्यों और उनके उत्तरवर्ती पीढ़ी-प्रपीढ़ी के प्राचार्यों ने लोकाशाह के विरुद्ध विषैला मिथ्या प्रचार करने में किसी प्रकार की कोई कसर नहीं रखी।
लोंकागच्छ में भानुचन्द्र नाम का कोई यति विक्रम की सोलहवीं शताब्दी में नहीं हुआ, तदुपरान्त भी उसके नाम से एक कृति प्रकाशित करवाकर लोंकाशाह के विरुद्ध इस प्रकार का बेसिर-पैर का झूठा प्रचार किया गया कि लोंकाशाह सूत्रों को नहीं मानते थे, उन्होंने सामायिक, पौषध और दान का विरोध किया । तत्कालीन अन्य गच्छों के विद्वानों ने भी चौपाई आदि कृतियों की रचना कर लोंकाशाह के विरुद्ध विषवमन में किसी प्रकार की कमी नहीं रखी।
किसी एक बात को कहने वाला व्यक्ति यदि निर्बुद्धि हो तो सुनने वालों को तो अपनी बुद्धिमत्ता का उपयोग करना ही चाहिये । यदि किसी बुद्धिहीन अथवा साम्प्रदायिक व्यामोहाभिभूत व्यक्ति ने बिना आगा-पीछा सोचे कह दिया कि लोंकाशाह शास्त्रों को नहीं मानते थे, वे सामायिक पौषध और दान का विरोध करते थे तो सुनने वाले को अथवा पढ़ने वाले को तो सोचना चाहिये था कि सामायिक, पौषध, व्रत, नियम, प्रत्याख्यान शास्त्र स्वाध्याय और दान के निषेध के पश्चात् भी क्या कोई धर्म नाम की वस्तु अवशिष्ट रह जाती है ? नहीं । तो फिर उस दशा में सामायिक पौषध, दान और शास्त्रों का विरोध करने वाला व्यक्ति अपनी ओर उद्वेलित सागर की भांति अधिकाधिक संख्या में उमड़ते आ रहे लोक समूह को किस बात का उपदेश देता और किसी भी शास्त्र को न मानने की दशा में किस धर्मशास्त्र एवं किस धर्मग्रन्थ के आधार पर उपदेश देता। क्या चार्वाक के इस सिद्धांत पर उपदेश देता कि :
यावज्जीवं सुखं जीवेत्, ऋणं कृत्वा घृतं पिवेत् । भस्मीभूतस्य देहस्य, पुनरागमनं कुतः ।।
जहां तक आगमों को मानने न मानने का प्रश्न है, लोकाशाह के ५८ बोलों, १३ प्रश्नों, ३४ बोलों तथा परम्परा विषयक ५४ प्रश्नों से निर्विवादरूपेण यह सिद्ध हो जाता है कि लोंकाशाह की आगमों के प्रति अतीव प्रगाढ़ आस्था एवं उस समय के सभी गच्छों की अपेक्षा कहीं अधिक अनन्य आस्था थी। आगमों, नियुक्तियों, चूणियों, वृत्तियों एवं आगमों के भाष्यों के गहन एवं तलस्पर्शी अध्ययन के अनन्तर जब उन्हें पूर्णरूपेण विश्वास हो गया कि उनमें अनेकानेक परस्पर
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