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________________ ७५० ] [ जैन धम का मौलिक इतिहास-भाग ४ सुरेन्द्रार्चा जिनेन्द्रार्चा, तत्पूजादानमुत्तमम् । समुत्थाप्य स पापात्मा, प्रतीपो जिनसूत्रतः ।।१६१।। तन्मतेऽपि च भूयांसो, मतभेदा समाश्रिताः । कलिकालबलं प्राप्य, दुष्टाः किं कि न कुर्वतः ।। १६२।। बहुधा दुर्मतैरेवं, मोहान्धतमसावृतः । जिनोक्त मूलमार्गोऽसौ, निर्मल: समलीकृतः ।।१६३।। अर्थात्- नटतुल्य हास्यास्पद अर्द्धफालक वेषधर यापनीय मत से श्वेताम्बर मत का प्रादुर्भाव हुआ। मिथ्यात्व-मोहनीय के मल से मलिन श्वेताम्बर मत से भी कुछ तो अहंकार, कुछ अपनी-अपनी पृथक्-पृथक् समाचारी, कतिपय अपने-अपने हठपूर्ण मताग्रह और कतिपय पूर्वोपार्जित घोर दुष्कर्म के प्रभाव के कारण, अनेक प्रकार के विघटनकारी भेदप्रभेदपरक मत उत्पन्न हुए। तदनन्तर वि० सं० १५२७ में धर्मकार्यों को विलुप्त कर देने वाला लुकामत के नाम से एक मत प्रकट हुआ। विद्वत्ता के लिये विख्यात गुर्जर प्रदेश के अनहिल्लपुर पत्तन नामक सुन्दर नगर में श्वेताम्बर मतावलम्बी लुका नामक एक महाभिमानी का प्राग्वाट (पोरवाल) वंश में जन्म हुआ। पापपुंज उस दुष्टात्मा लुका ने तीव्र मिथ्यात्व के उदय से कोपाभिभूत हो दुष्टतापूर्ण भावना के साथ लुंकामत को जन्म दिया। देवों के राजा इन्द्र और जिनेश्वर भगवान् की अर्चा-पूजा और उत्तम दान की उत्थापना कर वह पापी जैन सूत्रों-जैनागमों का विरोधी बन गया। उस लुंका के लुकामत में भी आगे चलकर अनेक प्रकार के मतभेद उत्पन्न हुए। कलिकाल के बल को पाकर दुष्ट लोग क्या-क्या अनर्थ नहीं कर बैठते । इस प्रकार मोहजन्य प्रगाढ़ अज्ञानान्धकार से आच्छन्न दुर्बुद्धि वाले उन लोगों ने जिनेन्द्र प्रभु द्वारा प्रदर्शित जैनधर्म के निर्मल-विशुद्ध मूल मार्ग को मलिनविकृत कर दिया। इन उद्धरणों से यहां हमें यह बताना अभिप्रेत नहीं कि आचार्य जैसे महनीय महत्वपूर्ण पद पर अधिष्ठित विद्वान ग्रन्थकार द्वारा अपने विरोधियों के विरुद्ध प्रयुक्त की गई भाषा इस बात का स्वतःसिद्ध अकाट्य प्रमाण है कि विक्रम की सोलहवींसत्रहवीं शताब्दी में जैन संघ पारस्परिक कलह, वैमनस्य, दुर्भाव, मताग्रह और धार्मिक असहिष्णुता की क्रीड़ास्थली बन गया था। यहां तो केवल इतना ही बताना अभिप्रेत है कि आचार्यश्री रत्ननन्दि के अभिमतानुसार लोकाशाह का जन्म अनहिलपुरपत्तन के प्राग्वाट वंश में हुआ और लोंकाशाह ने लुंकामत को प्रचलित करते हुए मूर्तिपूजा और उत्तम दान का विरोध किया। लोकाशाह ने सामायिक, प्रतिक्रमण पौषध आदि का विरोध किया हो, इस प्रकार का कोई उल्लेख आ० श्री रत्ननन्दि ने अपनी उपरि नामांकित कृति में कहीं नहीं किया है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002074
Book TitleJain Dharma ka Maulik Itihas Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj
PublisherJain Itihas Samiti Jaipur
Publication Year1995
Total Pages880
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size16 MB
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