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सामान्य श्रुतधर काल खण्ड २ ]
लोकाशाह
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सासर वासो करवा भरणी रे, अमे आव्या एणे ठाम । घरणा जवाब कीधा तिहां रे लाल, तजियो सासरवास ।।सू०स०५।।
लोकाशाह के सम्बन्ध में दिगम्बराचार्य रत्ननन्दि के विचार
दिगम्बराचार्य रत्ननन्दि ने वि० सं० १६२५ की अपनी "भद्रबाहु चरित्र" नामक कृति में अपनी कल्पना के बल पर अति कटु आलोचना के साथ अर्द्धफालक अथवा यापनीय एवं श्वेताम्बर संघ की उत्पत्ति का विवरण प्रस्तुत करने के पश्चात् लोंकाशाह के वंश, जन्मस्थान, उनकी मान्यताओं एवं उनसे लुंकामत की उत्पत्ति पर अति संक्षेप में निम्नलिखित रूप में अपना अभिमत प्रकट किया है :
श्वेतांशुकमतादेव, मतभेदाः शुभातिगाः । अहंकृतिवशात्केचित्केचित्स्वाचरणाश्रयात् ॥१५५।। स्वस्वाश्रयभिदा केचित्केचिदुष्कर्सपाकतः । ततो बभूवुर्भूयांसो, मिथ्यामोहमलीमसात् ॥१५६।। मृते विक्रमभूपाले, सप्तविंशतिसंयुते ।।
दि.१५२७ दशपंचशतेऽब्दानामतीते श्रुणुतापरम् ।।१५७।। लुंकामतमभूदेकं, लोपकं धर्मकर्मणः । देशेऽत्र गौर्जरे ख्याते, विद्वत्ताजितनिर्जरे ॥१५८।। अणहिल्लपत्तने रम्ये, प्राग्वाटकुलजोऽभवत् । लुंकाभिधो महामानी, श्वेताशुकमताश्रयी ॥१५६।। दुष्टात्मा दुष्टभावेन, कुपितः पापमण्डितः । तीव्रमिथ्यात्वपाकेन, लुंकामतमकल्पयत् ।।१६०।।
तदातिवेलं भूपाय:, पूजिता मानिताश्च तैः । धृतं दिग्वाससा रूपमाचारः सितवाससाम् ॥१५३।। गुरुशिक्षातिगं लिंगं, नटवद् भण्डिमास्पदम् । ततो यापनसंघोऽभूत्तेषां कापथवर्तिनाम् ।।१५४।। धृतानि श्वेतवासांसि, तद्दिनात्समजायत । श्वेताम्बरमतं ख्यातं, ततोऽर्द्धफालकमतात् ।।५४।। मृते विक्रमभूपाले, ट्त्रिंशदधिके शते । गतेऽन्दानामभूल्लोके, मतं श्वेताम्बराभिधम् ॥५५।।
-भद्रबाहुचरित्र, प्रा. रत्ननन्दि, परिच्छेद ४
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