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________________ ७४८ [ J गुरु उपदेश त्यां सांभली बार व्रत श्रावक ना लीधा रे । राजेन्द्र नगर विषे गया, पोहता आप महल ठामो रे ।। १६ ।। अ० ऋषि रायचन्द्र एम वीनवे, तीजी देशी असाउरी फागे रे । चौथी देशी भवी सांभलो, आगल भाव रसालो रे ॥ २० ॥ श्र० जैन धर्म का मौलिक इतिहास - भाग ४ हा प्रथम देश मारू विषे, शहर सिरियारी मांहे । धर्म उद्योत तिहां कर्यो, महतो श्री वर्द्धमान || १ || लोकागच्छ जग प्रकट्यो, रिख रामजी गुरणवन्त । धर्मो तिहां करे, देसी चौथी प्रसिद्ध ॥२॥ जिम नेमनाथ राजुल तजी, इम महतो वर्द्धमान । स्त्री आठ परणी हती, नवमी परणवा काम ||३|| लगन दियो छे सासरे, केसर दे सुकुमाल । ते नव दिन छे थाकता, पररणवा महता काज ||४|| कोतक प्रारे पंच जिस दीसे सालीकुमार | एक-एक दिन-दिन तजे, इम त्यागी तुरत काल ||५|| अधिक विस्तार छे तेहनो, चौथी ढाल मझार । मुनिरायचन्द जंपे इसो, केम लेसे संजम भार ||६|| ढाल चौथी देशी तिहुं को अधिवृरणाम चौथी देशी मांही छे ते सुणजो नर नारो || ढाल चार । देशी टीटोडी टिका करे ए देशी । महतो श्री वर्द्धमानजी से, करके सासर वासो सुविचारी रे । संजम सुमन भावऊ रे लाल ।।१।। आभूषण बहु भन ना रे, कनक सुन्दर चूड़ा सार । सूविचारी रे संजय ए प्रकरणी । पाय झांझर बहु भांत ना रे, नय ने हार अनेक ।। सु० स० १।। केसर बाई ने लेवा चालिया रे लाल, महतोश्री वर्धमान || सु० स ० . २ ।। सासूजी का सुणी रे, आव्या बात कररण ने त्यांह | घूंघटा ने प्रघो करी रे लाल, ऊभी ज्यां महतो वर्द्धमान ||सु० स० ३|| Jain Education International कोण कारण याव्या तुम्हें रे, लाज नहीं एणे ठाम । बोल्यां त्यां महतो वर्धमानजी रे लाल, अमे लेसूं संजम भार ||सु०स० ४।। For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002074
Book TitleJain Dharma ka Maulik Itihas Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj
PublisherJain Itihas Samiti Jaipur
Publication Year1995
Total Pages880
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size16 MB
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