________________
सामान्य श्रुतधर काल खण्ड २ ]
लोकशाह
[ ७५१
जहां तक मूर्तिपूजा का प्रश्न है, लोंकाशाह के १३ प्रश्नों एवं ५८ बोलों आदि से सूर्य के प्रकाश के समान यह स्पष्टतः प्रकट होता है कि उन्होंने सर्वज्ञप्रणीत आगमों एवं प्रागमोत्तरकालीन निर्युक्ति, वृत्ति, भाष्य, चूरिण आदि के समीचीनतया आलोडन विलोडन के अनन्तर आगमिक उद्धरणों के प्रस्तुतिकरण के साथ मूर्तिपूजा को अनागमिक - प्रशास्त्रीय सिद्ध करते हुए मूर्तिपूजा का डट कर विरोध किया । किन्तु लोंकाशाह के ५८ बोलों एवं १३ प्रश्नों आदि में कहीं कोई एक भी ऐसा शब्द नहीं, जिससे कोई यह कहने का दुस्साहस कर सके कि लोकाशाह ने सामायिक, प्रतिक्रमण, पौषध, दान आदि सत्कार्यों का कभी कहीं नाममात्र के लिए भी विरोध किया हो । आचार्य रत्ननन्दि ने उपर्युद्धत श्लोक सं० १६१ में लिखा है कि लुंका ने जिनेन्द्र प्रभु की अर्चा के साथ-साथ सुरेन्द्र - अर्थात् देवताओं के इन्द्र की अर्चा का भी विरोध किया । जैनागमों में, जैन संस्कृति में इन्द्र की पूजा के लिए तो कहीं कोई स्थान ही नहीं होने के कारण लोंकाशाह ने सुरेन्द्रार्चा के सम्बन्ध में एक भी शब्द नहीं कहा है । इससे यह भी तथ्य प्रकाश में आता है कि विरोधियों का खण्डन करते समय पूर्वकालीन प्राचार्यों द्वारा भी केवल विरोध के नाम पर आधारहीन बातों का भी उल्लेख कर दिया जाता था । लोकाशाह के विरोध में लिखने वाले विद्वानों के द्वारा किये गये उल्लेखों में स्थान-स्थान पर इस प्रकार के तथ्यों की अनदेखी दृष्टिगोचर होती है ।
1
लोकशाह के जीवन के कतिपय विवादास्पद पहलुओं पर पर्याप्तरूपेण विशद प्रकाश डालने वाले दो प्राचीन पत्र आज से लगभग पचपन छप्पन वर्ष पूर्व लींबड़ी मोटा उपाश्रय सम्प्रदाय के मंगलजी स्वामी के शिष्य मुनिश्री कृष्णजी स्वामी को कच्छ में नानी पक्ष के यति गोरजी श्री सुन्दरजी के पास देखने को मिले । वे दो पत्र कल्पसूत्र की एक प्राचीन विक्रम की सत्रहवीं शताब्दी के प्रथम चरण की प्रति के अन्त में संलग्न थे । तपागच्छीय यति नायक विजय के शिष्य कांतिविजय द्वारा वे दो पत्र पाटण नगर में सम्वत् १६३६ की बसन्त पंचमी के दिन लिखे गये थे । इस प्रकार का स्पष्ट उल्लेख उन दोनों पत्रों के अन्त में स्वयं लिपिकर्ता द्वारा किया गया था । यति श्री सुन्दरजी की अनुमति प्राप्त कर श्रीकृष्णजी स्वामी ने उन दोनों पत्रों की प्रतिलिपि तैयार कर अपने पास रखली ।
*"
कालान्तर में उन दोनों पत्रों की प्रतिलिपि "जैन धर्म नो प्राचीन संक्षिप्त इतिहास" नामक ऐतिहासिक कृति के लेखक मुनिश्री मणिलालजी को श्रीकृष्णजी स्वामी ने प्रेषित की। उन दोनों पत्रों की प्रतिलिपि का उपयोग एवं अक्षरश: उल्लेख लींबड़ी संघवी उपाश्रय के पूज्य श्री मोहनलालजी स्वामी के शिष्य मुनिश्री मणिलालजी महाराज ने अपनी उक्त ऐतिहासिक कृति में किया है ।
लोकाशाह के जीवन पर नवीन एवं महत्वपूर्ण प्रकाश डालने वाले उन दो प्राचीन पत्रों की प्रतिलिपि इस प्रकार है :
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org