________________
७४२ ]
।
जैन धर्म का मौलिक इतिहास-भाग ४
मन में एहवो चिन्तवी, पहुंता नगरमझार । एहवो कोई श्रीमन्त छे, दया धर्म चलाय ।।२।। त० जोतां जोतां साह रूपसी अरणहिल्लपुर ने मांय । नगर सेठ तिहां बसे, साह रूपसी सुजाण ।।३।। त० लखमसी जाई तेम ने मल्या, बोल्या देखी सेठ । किहां बसो छो तुम्हें इहां, कौन तुम्हारो धर्म ने ठाम ।।४।। त० कुरण तुम्हारी साख छे, कुरण तुम्हारी जात । वलता लखमसी इम बोलिया, बीसा श्रीमाली अमारी साख ।।५।। त० जिणधरमी गच्छ खडतरा, महता अमारी जात । मारुदेश ए मैं रहऊं, सहर खरन्टियावास ।।६।। त० किण कारज प्राविया इहां, कोय बेपार ने काम । वलता लखमसी एम वीनवे, अमारे धर्म नो काम ॥७॥ त० धर्मकार्य किसो कहो, पूछे रूपसी एम। वलता लखमसी इम कहे, एह तो धर्म नूं काम ।।८।। त० दयाधर्म जिन भाखियो, तो श्री जिन वर्द्धमान । ते धर्म सर्व उथापने, हिंस्या धर्म चलाय ।।६।। त० एम सुणी ने बूझ्या रूपसी, धार्यो समकित दृड्ढ । लखमसी एम त्यां बोलिया, पुस्तक ने द्रव्य बहु दिध ॥१०॥ त० धर्म कारज पुस्तक तणूं, भाखे लखमसी एम । मुझ पासे जो द्रव्य होवे, पुस्तक सर्व लखाय ।।११।। त० द्रव्य दीधो बह रूपसी, करो तमे उत्तम काम । को तो बहु तुम साथे देऊ, ते तो लखवा ने काम ।।१२।। त० द्रव्य लही महतो लखमसी, बेहठा लखवा काज। ये दसमीकालक प्रादे दई, सूत्र बत्तीसे उतार ।।१३।। त० सूत्र लखी आनन्द विमल ना, पाछा तेह ने दीध । आप लख्या मेहते लखमसी, सेठ रूपसी ने दीध ॥१४॥ त० रूपसी त्यां देखी करी, प्रछे लखमसी ने एम। अबे कोई अधूरो जो हुवे, तो तम लखो भव जीव ।।१५।। त० हवे तो पाछे को नहीं, सूत्र बत्तीस छे एह । दयाधर्म एह मांहे, उर दीसे छे मो लाह ॥१६॥ त० सुण ने सेठ तिहां रूपसी, पूछे लखमसी एम । सूत्र लखा मेहतो घणा, पण नहीं अर्थ नी गम ।।१७॥ त०
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org