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________________ भारत पर मुस्लिम राज्य ] [ ५७ कर्मयुग का प्रवर्तन करते समय प्रथम धर्म तीर्थकर भ० ऋषभदेव ने श्रामण्य स्वीकार करने से पूर्व कर्मविधि एवं कलाओं से नितान्त अनभिज्ञ मानव समाज को एक सशक्त, सुसंगठित एवं आत्मनिर्भर कर्मठ समाज की संरचना के लिए असि (तलवार आदि शस्त्र), मसि, (पठन-पाठन-लेखन, व्यापार) और कृषि (पशुपालन, अन्नोत्पादन) आदि की शिक्षा दे उसे सब कलाओं में निष्णात किया। इन तीन कर्मों में असि अर्थात् शस्त्र का नाम सर्वप्रथम आया है, यह भी कोई संयोग की बात नहीं। तदनन्तर आदि राजा ऋषभदेव ने राजनीति के आविर्भाव अथवा आविष्कार के साथ ही दण्ड-नीति का विधान किया। शान्तिनाथ, कुन्थुनाथ एवं अरनाथ ने भी धर्मतीर्थ के प्रवर्तन से पूर्व धरा पर सुसभ्य, सुसंस्कृत, शान्तिप्रिय, न्यायनीति परायण, कर्त्तव्यनिष्ठ सुखी समाज के लिए अनिवार्य रूपेण परमावश्यक सुशासन की स्थापना के लक्ष्य से दिग्विजय के रूप में षट्खण्डों की साधना की। सुशासन के लिए कण्टक तुल्य शक्तियों को परपीड़न-कार्य से विरत, न्यायप्रिय एवं अनुशासित बनाने के लक्ष्य से उन तीनों तीर्थकरों ने अपने-अपने शासनकाल में अनेकों युद्ध भी किये । ये सब आगमिक तथ्य इस बात के साक्षी हैं कि अहिंसा का सिद्धांत किसी भी धर्मनिष्ठ एवं शान्तिप्रिय गृहस्थ को आततायी के लवलेश मात्र भी अत्याचार को चुपचाप सहन करने की नहीं अपितु वस्तुतः उसके समूलोन्मूलन की शिक्षा देता है। आशा है मनीषी इस विषय में मननपूर्वक विचारमन्थन कर जिनशासन के उज्ज्वल भविष्य के लिये जैन धर्मावलम्बियों को समुचित मार्ग-दर्शन करेंगे। उपरिवरिणत तथ्यों से यह स्पष्टतः प्रकट होता है कि ईसा की छठी-सातवीं शताब्दी में न केवल दक्षिणापथ ही अपितु भारत के अन्यान्य प्रदेशों में भी धार्मिक असहिष्णुता, छोटे बड़े अनेक मत-मतान्तर, वर्णविद्वेष, वर्गविद्वेष, ऊंच-नीच-छूयाछूत के भेदभाव आदि के व्यापक प्रभाव के परिणामस्वरूप चारों ओर पारस्परिक कलह का ताण्डव नृत्य पराकाष्टा को पार कर चुका था। इस प्रकार की प्रशान्त स्थिति से छुटकारा पाने के लिए जन-जन का मन मचल उठा था । अन्ततोगत्वा सबको समान मानवीय अधिकार, समान स्तर, समान आदर प्रदान करने वाले, वर्ग, वर्ण, जाति, धर्म आदि के विभेदविहीन अभिनव समाज की रचना के लिए एकेश्वरवाद के सिद्धांत की घोषणा करते हुए ई० सन् ६०० के आसपास शैव सन्तों ने तामिलनाडु प्रदेश में शैव नाम से एक धार्मिक अभियान प्रारम्भ किया। उस समय समाज में दलित, उपेक्षित एवं निम्न कहे जाने वाले वर्गों के शत-प्रतिशत सहयोग एवं अदम्य उत्साह के परिणामस्वरूप वह शैव अभियान शनैः शनैः लोकप्रिय होता चला गया और ई० सन् ६१० के आसपास तो कांची एवं मदुरा के राजाओं के सक्रिय एवं सशक्त सहयोग से शैव अभियान ने एक व्यापक धार्मिक क्रान्ति का रूप धारण कर लिया। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002074
Book TitleJain Dharma ka Maulik Itihas Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj
PublisherJain Itihas Samiti Jaipur
Publication Year1995
Total Pages880
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size16 MB
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