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________________ ५६ ] [ जैन धर्म का मौलिक इतिहास-भाग ४ नितान्ततः निर्भर रहे। उन्होंने सम्भवतः इस ओर उस अवधि में कभी ध्यान ही नहीं दिया कि द्रुतगति से परिवर्तनशील कालचक्र में संक्रान्तिकाल के उपस्थित हो जाने पर, वर्गविद्वेष, वर्णविद्वेष, धार्मिक असहिष्णुता के व्यापक प्रचार की दशा में अपने संघ, समाज, धर्म, संस्कृति और अस्तित्व की रक्षा के लिये आत्मनिर्भर रहना अनिवार्यरूपेण सदा आवश्यक है। इस तथ्य को भुला देने के कारण ही जैनों को उनके धर्म और उनकी संस्कृति को दक्षिण में अपूरणीय अपूर्व क्षति उठानी पड़ी। गीता के निम्नलिखित निष्कर्ष इस प्रकार की स्थिति में अक्षरश: चरितार्थ होते हैं : भयाद्रणादुपरतं, मंस्यन्ते त्वां महारथाः । येषां च त्वं बहुमतो, भूत्वा यास्यसि लाघवम् ।। अवाच्यवादांश्च बहून्, वदिष्यन्ति तवाहिताः । निन्दन्तस्तव सामर्थ्य, ततो दुःखतरं नु किम् ।। एकेश्वरवाद के अभ्युदय का विवरण प्रस्तुत करते समय प्रसंगवशात् इस सम्बन्ध में कटु सत्य पर केवल इसी लक्ष्य से विस्तारपूर्वक प्रकाश डाला गया है कि जैनधर्मानुयायी इन सब तथ्यों पर गम्भीरतापूर्वक विचार कर किसी ऐसे प्रशस्त मार्ग का अनुसरण करें, जिससे भविष्य में जैनधर्म एवं जैनधर्मावलम्बियों को अतीत की भांति सर्वहारा हानि न उठानी पड़े। जहां तक तीन करण, तीन योग से सभी प्रकार के सावध कार्यों का यावज्जीवन त्याग करने वाले पंचमहाव्रतधारी सन्तसतीवर्ग का प्रश्न है, भले ही वे विधान के रूप में यह नहीं कह सकें कि अत्याचारी के अत्याचारों का पूरी शक्ति के साथ प्राणपण से प्रतिरोध करना शूरवीरता है और मृत्यु के भय से भयभीत हो बिना किसी प्रकार के समुचित प्रतिरोध के आततायी के अत्याचारों को चुपचाप सहन कर लेना कायरता है, किन्तु ८ वर्ष की बाल्य वय में साथी बालकों के साथ बालक्रीड़ा में रत महावीर की संकुलीक्रीड़ा में अवरोध उत्पन्न करने हेतु भयंकर विषधर का रूप धारण कर आये हुए मायावी देव को हाथ से पकड़ कर एक ओर डाल देना तथा तदनन्तर उनके तिन्दूसक खेल में अवरोध उत्पन्न करने एवं सब बालकों को भयभीत करने के लक्ष्य से बालक का रूप धारण कर बालकों में सम्मिलित हुए और महावीर से उस क्रीड़ा में पराजित हो जाने के परिणामस्वरूप अपनी पीठ पर आरूढ़ महावीर को डराने एवं उनका अपहरण करने के लक्ष्य से सात ताल (ताड़) तुल्य भीषण रूप धारण किये मायावी की पीठ पर मुष्टिप्रहारपूर्वक महावीर द्वारा उस मायावी देव का गर्वावहार' यही शिक्षा देता है कि आततायी के अत्याचार का मुंह-तोड़ उत्तर देना प्रत्येक मानव का, प्रत्येक गृहस्थ जैन का जन्म-सिद्ध अधिकार है-प्राथमिक परमावश्यक कर्तव्य है। १. जैन धर्म का मौलिक इतिहास, भाग १, पृष्ठ ३५५-५६ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002074
Book TitleJain Dharma ka Maulik Itihas Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj
PublisherJain Itihas Samiti Jaipur
Publication Year1995
Total Pages880
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size16 MB
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