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भारत पर मुस्लिम राज्य ]
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कारिक रूप से कहा जा सकता है कि ईसा की सातवीं शताब्दी के प्रारम्भिक काल में तामिलनाडु के जैनधर्मावलम्बियों के मन, मस्तिष्क एवं हृदय-पटल पर अहिंसा के नाम पर कलंक का टीका लगाने वाला अहिंसा का पौरुषविहीन स्वरूप बड़ी गहराई में घर कर चुका था, जो कालान्तर में शनैः शनैः आन्ध्र, कर्णाटक आदि अन्य प्रदेशों में भी व्याप्त हो गया। आज तो स्पष्ट रूप से परिलक्षित हो रहा है कि अहिंसा का वह आत्मघाती स्वरूप जैनमात्र के स्वभाव का अभिन्न अंग बन गया है । अहिंसा के नाम पर इस प्रकार की आत्मघाती डरपोक वृत्ति के लिए जैन आगमों में कहीं कोई लवलेश मात्र भी स्थान नहीं है । इसके उपरान्त भी यह बड़े आश्चर्य की बात है कि अहिंसा का इस प्रकार का पौरुषविहीन स्वरूप जैन धर्मावलम्बियों के रक्त में उत्तरोत्तर व्यापक रूप से क्यों घुलता-मिलता गया। अहिंसा के इस आत्मघाती स्वरूप ने जैनों के पुरातन गढ़ अथवा केन्द्रतुल्य तामिलनाडु प्रदेश से विक्रम की सातवीं शताब्दी में ही जैनों का अस्तित्व समाप्तप्रायः हो गया। तदनन्तर ईसा की बारहवीं शताब्दी के समाप्त होते-होते जैन धर्मावलम्बियों के एक सुदृढ़ गढ़ आन्ध्र प्रदेश में लिंगायतों द्वारा किये गये जैनों के सामूहिक संहार एवं बलात्धर्मपरिवर्तन के परिणामस्वरूप वहां जैनधर्म का अस्तित्व पूर्णत: समाप्त हो गया और कर्णाटक प्रदेश में जहां जैनों का शताब्दियों से सर्वाधिक वर्चस्व था, वहां भी लिंगायतों एवं रामानुजाचार्य के अनुयायी वैष्णवों द्वारा जैनों के विरुद्ध अथवा अपने सम्प्रदाय के प्रचार-प्रसार हेतु प्रारम्भ किये गये अभियानों के फलस्वरूप जैन धर्म के अनुयायी अतीव स्वल्प संख्या में अवशिष्ट रह गये । कर्णाटक में भी धामिक विद्वेष की अग्नि ऐसा प्रचण्ड स्वरूप धारण कर गई थी कि यदि बादामी के चालुक्यराज बुक्कराय ने वैष्णव होते हुए भी अपनी उत्कृष्ट एवं निष्पक्ष न्यायप्रियता का परिचय देकर जैनधर्मावलम्बियों को संरक्षण प्रदान नहीं किया होता तो सम्भवतः कर्णाटक प्रदेश में भी जैनधर्मावलम्बियों के साथ-साथ जैनधर्म का अस्तित्व पूर्णतः समाप्त हो जाता । जैनधर्मावलम्बियों के पुरातनकालोन सुदृढ गढ़ कर्णाटक में भी जैनधर्मावलम्बियों की संख्या में जो दुःखद न्यूनता आई, वह भी तत्कालीन जैनों के हृदय में घर किये गये पौरुपविहीन अहिंसा के दुस्वरूप का परिणाम है। वहां जो थोड़ी बहुत संख्या में जैन अवशिष्ट रह पाये हैं, उसका श्रेय बादामी के चालुक्य नरेश बुक्कराय की न्यायप्रियता को ही दिया जा सकता है, न कि अहिंसा के विकृत स्वरूप पौरुषविहीन अहिंसा के उपासक वहां के तत्कालीन जैनों को।
इन उपरिवरिणत ऐतिहासिक तथ्यों के परिप्रेक्ष्य में विचार करने पर यही निष्कर्ष निकलता है कि सम्भवतः एकमात्र राज्याश्रय के विश्वास पर, ईसा की छठी-सातवीं शताब्दी में तामिलनाडु प्रदेश के जैन, जहां तक प्रात्मरक्षा का, अपने संघ, समाज, संस्कृति को रक्षा का, अपना अस्तित्व, अपने धर्म का अस्तित्व बनाये रखने का प्रश्न है, परमुखापेक्षी ही बने रहे। इस विषय में वे राज्याश्रय पर ही
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