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[ जैन धर्म का मौलिक इतिहास-भाग ४
दक्षिणापथ के तामिलनाडु प्रदेश में ईसा की सातवीं शताब्दी के प्रथम दशक में शैवों द्वारा प्रारम्भ किये गये रक्तपातपूर्ण शैव अभियान में जैनों पर सामूहिक संहार, बलात् धर्मपरिवर्तन, सर्वस्वापहरण आदि के रूप में जो अत्याचार किये गये, दक्षिणापथ से जैनधर्म के अस्तित्व तक को समाप्त कर देने के जो प्रबल प्रयास किये गये, उन प्रयासों के सफल होने की पृष्ठभूमि में दक्षिण के उस समय के जैनों की इस प्रकार की भीरुता, क्लैव्यता, आततायियों के अत्याचार, अनाचार को मूक भेड़ बकरी तुल्य बिलबिलाते हुए सहन कर लेने, दैन्य, पलायनपरक वृत्ति वस्तुतः सबसे बड़ा कारण रही, यह एक कटुतम सत्य है । इसके विपरीत कर्णाटक प्रदेश के कोल्हार राज्य में उस समय शक्तिशाली गंगवंशी राजाओं का राज्य था। वह राजवंश जैन धर्मावलम्बी था। उस समय तक कर्णाटक प्रदेश के जैन धर्मावलम्बियों के हृदय पर गंग राजवंश के संस्थापक क्राणूर गण (ग्रामरणीय संघ) के प्राचार्य सिंहनन्दी की सात शिक्षाओं का पर्याप्त प्रभाव था। उन सात शिक्षाओं में से छठो शिक्षा इस प्रकार थी-“यदि तुम लोग अथवा तुम्हारे वंशज रणांगरण में पीठ दिखा कर पलायन कर देंगे तो तुम्हारा राज्य नष्ट हो जायेगा।" इस शिक्षा का सीधा सा अर्थ यही है कि आततायियों को मूलतः नष्ट करने के लिए रणांगण में डटे रहो, मर मिटो पर अत्याचारी के समक्ष मत झुको। जैनों के इसी शौर्यशाली संकल्प के कारण शैव अभियान तामिलनाडु से कर्णाटक की अोर नहीं बढ़ सका। ई० सन् ६४० से ६७० के बीच की अवधि में गंग राजवंश के ग्यारहवें राजा भूविक्रमश्रीवल्लभ भूरिविक्रम ने कांची के पल्लवराज पर आक्रमण किया और उसे युद्ध में परास्त कर उसके सम्पूर्ण कांची राज्य पर अधिकार भी कर लिया।' ऐसा प्रतीत होता है कि पल्लवराज का पृष्ठबल पाकर जब शैवों ने जैनों पर जब और अधिक घोर अत्याचार प्रारम्भ कर दिये, उस समय सम्भवतः जैन धर्मावलम्बियों की रक्षा के लिए ही गंगराज भूविक्रम ने अत्याचारी पल्लवराज को परास्त कर कांची के राजसिंहासन पर अधिकार किया होगा।
इस प्रकार की स्थिति में स्पष्ट प्रमाणाभाव के परिणामस्वरूप यह तो सुनिश्चित रूप से नहीं कहा जा सकता कि न केवल अपने अस्तित्वमात्र को ही अपितु अति प्राचीनतम सब संस्कृतियों की शिरमौर जैन संस्कृति के अस्तित्व तक को आर्यधरा के अंचल से, जगती-तल के मानचित्र से मिटा देने वाला, विलुप्त कर देने वाला अहिंसा का पौरुषविहीन स्वरूप जैन धर्मावलम्बियों के अन्तःस्तल में कब उद्भूत हुआ। इसके उपरान्त भी शैव अभियानकाल में तामिलनाडु प्रदेश में तत्कालीन प्रचुर संख्यक जैनों के प्रतिकारविहीन सामूहिक भीषण संहार एवं सर्वस्वापहार की चुनौती के बल पर सार्वत्रिक सामूहिक धर्म परिवर्तन एवं व्यापक लूटपाट के सम्बन्ध में इतिहासज्ञों द्वारा सम्मत तथ्यों के आधार पर यह तो आधि
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जैनधर्म का मौलिक इतिहास, भाग ३, पृष्ठ २६६
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