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भारत पर मुस्लिम राज्य ]
[ ५३ मुख्यतः तामिलभाषी विशाल प्रदेश में जैनों की संघशक्ति उत्तरोत्तर क्षीण से क्षीणतम होती गई।'
इन दो प्रमुख कारणों के अतिरिक्त सबसे बड़ा कारण यह प्रतीत होता है कि अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह - इन जैन धर्म के मूल आधारभूत पांच सिद्धांतों में से श्रमणवर्ग ने अपने उपासक गृहस्थवर्ग अर्थात् श्रावक-श्राविका वर्ग को उपदेश देते समय अहिंसा को सर्वाधिक महत्त्व देकर श्रावक-श्राविका वर्ग को भी परीषह सहन अथवा उत्पीड़न सहन में सर्वस्वत्यागी श्रमण-श्रमणीवर्ग के समकक्ष अहिंसक बने रहने की प्रेरणा प्रदान कर एक प्रकार से अति की पराकाष्टा पार कर दी हो । भावुकतावश अथवा भावावेश में सम्भवतः वे न तो इस तथ्य को ही स्मरण रख सके हों कि जैनागमों में श्रावक-श्राविका वर्ग के लिये अनुकूल अथवा प्रतिकूल सभी प्रकार की परिस्थितियों में श्रमण-श्रमणीवर्ग की भांति पूर्णत: अहिंसक बने रहना अनिवार्य नहीं बताया गया है और न उन्होंने इस सार्वभौम शाश्वत सत्य-तथ्य को ही अपने स्मृतिपटल पर अंकित रखा कि धर्म के अस्तित्व पर, अबलाओं की अस्मत पर, अपने स्वयं के सर्वस्व, सम्मान अथवा जीवन पर और असहाय निर्बलों के प्राणों पर आये संकट अथवा आततायियों के अत्याचारों के संक्रामक काल में चुपचाप हाथ पर हाथ धरे अकर्मण्य बने बैठे रहना अहिंसा नहीं अपितु अहिंसा भगवती के न केवल भाल अथवा मुख पर अपितु आनख-शिख स्वरूप पर कलंक-कालिमा पोतने तुल्य महापाप है।
- प्रात्मरक्षा, अपने देश, जाति, समाज, धर्म, आश्रितों, अबलाओं की प्राणपण के साथ रक्षा करना प्रत्येक मानव का सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण प्राथमिक कर्तव्य है जो । व्यामोहवशात् अथवा मृत्यु के भय से - अपने इस कर्त्तव्य के निर्वहन में किंचित्मात्र भी कोर-कसर रखता है, कोताइ करता है, वह वस्तुतः क्लीब है, उसे पुरुष कहलाने का अधिकार नहीं। मृत्यु के भय से भयभीत हो कायरता प्रकट करने वाला पौरुष विहीन व्यक्ति स्वयं तो सर्वप्रथम अपने आश्रितों के साथ कीट-पतंग की मौत मरता ही है, साथ ही अपने पौरुषपुज पूर्वपुरुषों के प्रताप, यश, गौरव को धूलिसात् कर अपने देश, जाति एवं धर्म को भी रसातल में ढकेल देता है ।
१. बीएसु रणत्थि जीवो, उन्भसणं पत्थि फासुगं पत्थि ।
सावज्ज ण हु मगइ, रण गणइ गिहिकप्पियं अटें ॥२६॥ कच्छ खेत्तं वसहिं, वाणिज्ज कारिऊरण जीवंतो। ण्हंतो सीयल पीरे, पावं पउरं स संजेदि ।।२७।। पंचसए छव्वीसे, विक्कमरायस्स मरणपत्तस्स । दक्षिणमहुरा जादो, दविडसंघो महामोहो ॥२८॥
'दर्शनसार [दिगम्बराचार्य श्री दवसेन]
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