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________________ सामान्य श्रृतधर काल खण्ड २ लोकाशाह [ ७३६ दोहा । ढाल कपूर होय अति उज्वलो रे ॥ए देशी।। सकल मनोरथ पूरवो रे, चौवीसमो जिनराज। तेह तरणा परसाद थी रे, गासू गच्छ पट्टावली आज ।। जिनेश्वर तू मारे सरताज ।।१।। वीर जिणन्द ने पाटवी रे, सुधर्मा स्वामी धार । ते पाटे जम्बू नमूं रे, एम दोय हजार ने चार ।।२।।जिने० दोय सहस्र वरसे लगे रे, बैठो मध्यम काल । बार वरसी काल तिहां पड्या रे, निकल्या दुष्टि प्राचार ।।३।। जिने० एम करतां अनुक्रम सूं रे, सम्वत् पन्दरे इकतीस । चैत्र बुद्ध नवमी जिने रे, प्रथम पहोर जगीश ।।४।। जिने० नक्षत्र विशाखा जाणिये रे, दूजो मुहरत सीह । भस्मग्रह त्यां रे ऊतरो रे, प्रगट्यो धर्म अबीह ।।५।। जिने० पुण्यमया गच्छ जारिणये रे, अणिहलपुर रे मांय । आनन्द विमल तिहां बसे रे, पोसालधारी जती नाह ।।६।। जिने० शिष्य तेहनो मुनि खेमसी रे, दसमी काल लिखन्त । धम्मो मंगल प्रथम सही रे, अध्ययन प्रथम भणन्त ।।७।। जिने० एम करतां मुनिवर तिहां रे, खेमसी शिष्य अरणगार । पुस्तक त्यां लिखिया सही रे, आगम त्यां व्यवहार । लोकागच्छ ते जाणिये रे, निकल्या नौ अधिकार ।।८।। जिने० मारु मण्डल जाणिये रे, शहर खरन्टियो तिहां । तेह नगर नो राजवी रे, योधावत नर नाह ।।६।। जिने० दुरजनसिंह ये जारिणये रे, रतनसिंह का पूत । सात लाख तेने घर में रे, इभ्य ना घर भरपूर ।।१०।। जिने० नगरी तो वरणन अछेरे, जहां उवाइ मांय । राजगृही नगरी कही रे, श्रेणिक नामा राय ॥११।। जिने० एवी नगरी इहां सही रे, प्रत्यक्ष पंचमे काल । धन्ना सालभद्र सारखा रे, बसे छे तिहां धनपाल ।।१२।। जिने० रात दिवस जाणे नहीं रे, क्यां ऊगे क्या अस्त । जगत विलास, तिहां करे रे, जिम कोसां थुलभद्र ।।१३।। जिने० खरतर गच्छ तिहां जाणिये रे, आचारजीया सोय।। तेनां श्रावक त्यां छे घणा रे, महता जीवराज लखमसी जोय ।।१४।। जिने. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002074
Book TitleJain Dharma ka Maulik Itihas Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj
PublisherJain Itihas Samiti Jaipur
Publication Year1995
Total Pages880
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size16 MB
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