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[ जैन धर्म का मौलिक इतिहास - भाग ४
पूरवधारी मुनि नमूं, श्री गौतम प्रदे देई, चन्दनबाला आदि दइ, सात सहस्र मुनिवर नमूं, साध्वी शत चउदे कही, केवलधर नर ईश । ते मांहे मोटा नमूं, श्री गौतम घर शीश || ४ || पूछे जिन अधिकार । चालसी पंचम काल ||५||
लब्धि अठावीस धार । चौदह सहसज अरणगार ||२|| साध्वी सहस छत्तीस । श्री गौतम घर शीश ||३||
वांदि वीर जिरणन्द ने तुम शासन केटला लगे, बलतां वीर जिरणन्द कहे, सुरण गौतम अधिकार । मुझ शासन आरे पंचमे, सहस्र इक्कीस निरधार ||६|| .
प्रथम पाट निज वीर नो, विप्र सुधर्मा स्वाम । ते पाटे प्ररणमूं सदा, जम्बूदिक अरणगार ||७|| पाट तीसरे जारिणये, प्रभव स्वामि जुग इन्द्र । सय्यंभव यशभद्रादिक्, भद्रबाहु चन्द्रगुप्त ||5|| देवभद्र स्थूलभद्र के, अर्ज सुहस्त गिरन्त । वर्ष बे सौ पन्द्रह हुआ, स्थूलभद्र निर्ग्रन्थ ||६|| चउ शत चोपन वर्ष गये, निकल्यो दिगम्बर गच्छ । नव सौ वर्ष चोरासिये, देवड्ढि गुरु स्वच्छ ॥ १० ॥ पूरब ज्ञान विच्छेद गयो, द्रव्य सूत्र दरसात । इत्यादिक मुनिवर नमूं दोय सहस्र लक्ष चार ॥११॥ पाट श्री विरधमान ने बे हजार ने चार । एक भव अवतारी मुनि, ग्यारह सोल हजार ।।१२।। सुधर्मादिक दुप्रसह मुनि, यूं हजार बे चार । ई शासन वर्द्धमान नो, तेनो कहूं विचार ||१३|| वर्ष गया नव से सही, वलि चौरासी सार । द्रव्य सूत्र लखिया तिहां, पूरब ज्ञान विच्छेद ।।१४।। वरस बारह से पन्द्रह गया, वीरसेन अरणगार । अनशन गिर वैभार में दस सहस्र मुनि सार ||१५|| मास एक अरणसरण हुआ, चिन्तव्यो सिख तिहिवार । संजम किम निरवाह से, पलसे साध्वाचार ।। १६ । कर्यो सुगाल विहार । पाट चौतीसमो धार ।।१७।। कियो संथारो सार । हिंसा धर्म अधिकार ||१८||
एक शिष्य खंदक मुनि, मेहेला सुरसेन देश में, मेघदत्त मुनि गुरु कने, अभयदेवसूरि हुवो, थाप्यो
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