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________________ सामान्य श्रुतधर काल खण्ड २ ] लोकाशाह [ ७३३ इस प्रकार मेहता लखमसी प्रतिदिन आगमों का उपदेश देने लगे। उनके उपदेशों से अनेक भव्यों को सर्वज्ञ-सर्वदर्शी प्रभु महावीर द्वारा संसार के कल्याण के लिए प्रकाशित जिनधर्म के वास्तविक सच्चे स्वरूप का प्रतिदिन बहुत बड़ी संख्या में उपदेश श्रवणार्थ आये हुए लोगों को बोध होने लगा और प्रतिदिन विशाल नरनारी समूह शास्त्र में निर्दिष्ट दया-धर्म के अनुयायी बनने लगे। जिनधर्म का चारों ओर उद्योत होने लगा। इस प्रकार लोकाशाह के उपदेशों से जैनधर्म के सच्चे स्वरूप का जिन दिनों प्रचार-प्रसार हो रहा था, उन्हीं दिनों दिल्ली से एक संघ अनेक तीर्थस्थानों की यात्रा करता हुआ अनहिलपुरपत्तन नगर में आया। उस संघ के अग्रणी और खजान्ची शाह भामा, भारमल, खेतसी, शाह जगरूप, शाह डूंगर और शाह मेघराज लोक में विश्रुत मेहता लखमसी (मेहता लोकाशाह) की सच्चे धर्म के उपदेशक के रूप में प्रसिद्धि सुनकर उनके पास आये । मेहता लखमसी ने उन्हें आगमों के आधार पर आगमिक गाथाओं के उल्लेखपूर्वक मुक्तिप्रदायी धर्म का उपदेश दिया। तीर्थाटन के लिये निकले हुए उन संघ मुख्यों को मुक्तिप्रदायी दयामूलक सच्चे धर्म का बोध हुमा । उन्होंने लखमसी मेहता (लोंका मेहता) के पास सम्यक्त व ग्रहण कर उसे दृढ़ किया। शाह भामा और शाह भारमल ने अहिंसा, सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह स्वरूप पंच महाव्रतों की दीक्षा ग्रहण करने का संकल्प किया। वे संघ मुख्य तीर्थयात्रा का विचार छोड़ मेहता लखमसी के पास शास्त्रों का ज्ञान अर्जन करने लगे। . उन्हीं दिनों सूरत का एक विशाल संघ अनहिलपुरपत्तन में आया। उसमें अश्व, गज, उष्ट्र, शकट, पोठिये (प्रतिदिन आवश्यक जीवनोपयोगी सामग्री को ढोने वाले बैल, परिचारक, पाचक, रजक आदि संभवतः सभी मिला कर) चार लाख का साथ था । संघपति शाह जीवराज ने इस विशाल संघ का डेरा पाटन नगर के बाहर एक विशाल मैदान में डाला। संघवी शाह जीवराज ने संघ के सदस्यों के (टिप्पणी पृष्ठ ७३२ से आगे) रूपसी लखम साथे लई, गया आनन्द विमल ने पास । दसमीकालक आदे दई, अर्थ पाठ कहिय । केम धर्म को रे थापिये, बोले रूपसी पास....।।२०।। त्रिपोलिया पर बैस ने, करे उपदेश अपार । प्रथम वाणी भाखी तिहां, सात सं घर श्रावक धार ॥२१॥ —एकपातरिया (पोतियाबन्ध) पट्टावली हस्तलिखित । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002074
Book TitleJain Dharma ka Maulik Itihas Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj
PublisherJain Itihas Samiti Jaipur
Publication Year1995
Total Pages880
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size16 MB
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