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________________ ७३२ ] [ जैन धर्म का मोलिक इतिहास-भाग ४ मेहता लखमसी ने रूपसी से लेखन हेतु आवश्यक धनराशि ली और अपने स्थान पर पाकर आगमों के लिखने एवं लिखवाने का कार्य प्रारम्भ किया। उन्होंने अहर्निश अथक परिश्रम कर बड़ी ही तन्मयता के साथ बत्तीसों प्रागमों को लिखा और उनकी अनेक प्रतियां तैयार करवाईं। लेखन कार्य के सम्पन्न होते ही बत्तीसों आगमों की एक-एक प्रति एवं मूल उन्होंने आनन्दविमलसूरि को उनकी पोशाल में समर्पित की और ३२ आगमों की शेष सभी प्रतियां नगरश्रेष्ठि रूपसी के समक्ष प्रस्तुत की। बत्तीसों सूत्रों की उन प्रतियों को देखकर रूपसी ने मेहता लखमसी से कहा- "हे भव्यात्मन् ! और भी कोई आगम लिखना अवशिष्ट हो तो उसे आप लिखिये।" मेहता लखमसी ने उत्तर दिया “श्रेष्ठिवर ! अब और कोई आगम लिखना अवशिष्ट नहीं रहा है। इन ३२ आगमों में ही दयाधर्म प्रतिपादित किया गया है । इन बत्तीसों ही आगमों की प्रतियां लिख ली एवं लिखवा ली गई हैं । सच कहता हूं, अब मुझे लाभ ही लाभ दृष्टिगोचर हो रहा है।" । यह सुन कर रूपसी ने लखमसी से कहा-"मेहताजी ! आगम शास्त्र तो सब लिख लिये लेकिन इन आगमों के. अर्थ से हम अभी भली-भांति भिज्ञ नहीं हैं अतः हमें सबसे पहले आगमों को भली-भांति अध्ययन करना चाहिये।" इस प्रकार विचार कर नगरवेष्ठि रूपसी अपने साथ मेहता लखमसी को लेकर आनन्दविमलसूरि के पास गये । रूपसी ने आनन्दविमलसूरि से आगमों का अर्थ बताने को कहा । रूपसी की प्रार्थना पर आनन्दविमलसूरि ने एकान्त में बैठकर उन दोनों को प्रागमों का अर्थ बताना प्रारम्भ किया। मेहता लखमसी और श्रेष्ठि रूपसी ने अनुक्रमशः बत्तीसों आगमों का अध्ययन कर लिया। सूत्रों का अर्थ सुन कर वे दोनों विचार करने लगे कि आगमानुसारी धर्म की स्थापना किस प्रकार की जाय । विचार-विनिमय के अनन्तर मेहता लखमसी ने त्रिपोलिया पर बैठकर भव्य जीवों को धर्म का उपदेश देना प्रारम्भ किया। मेहता लखमसी के प्रथम उपदेश से ही पाटण नगर के ७०० घर शास्त्रों में सर्वज्ञ-सर्वदर्शी भगवान महावीर द्वारा प्ररूपित शुद्ध दया धर्म के अनुयायी बने और उन्होंने शुद्ध सम्यक्त व धारण किया।' १. एम सुणी ने बूझ्या रूपसी, धार्यो समकित दृड्ढ ।........ द्रव्य दीघो बहु रूपसी, करो तमे उत्तम काम ।........ द्रव्य लही महतो लखमसी, बेहठा लखवा काज । ये दसमीकालक प्रादे दई, सूत्र बत्तीसे उतार ॥१३॥ सूत्र लखी आनन्दविमल ना, पाछा तेहने दोध । आप लख्या मेहते लखमसी, सेठ रूपसी ने दीध । (शेष पृष्ठ ७३३ पर) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002074
Book TitleJain Dharma ka Maulik Itihas Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj
PublisherJain Itihas Samiti Jaipur
Publication Year1995
Total Pages880
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size16 MB
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