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________________ सामान्य श्रुतधर काल खण्ड २ ] लोकाशाह [ ७२६ प्राचार्य प्रानन्दविमल के शिष्य खेमसी मुनि ने उत्तर दिया-"श्रावकजी ! मैं दशवैकालिक सूत्र लिख रहा हूं।" मेहता लखमसी ने “धम्मो मंगलमुक्किठें, अहिंसा संजमो तवो"- इस गाथा को पढ़ा तो उन्हें बड़ा आश्चर्य हुआ। संभवतः मुनिश्री की धीमी लेखनगति अथवा अपेक्षित अक्षर-सौन्दर्य न देखकर मेहता लखमसी ने मुनिजी से कहा-- "मुझे दीजिये महाराज ! मैं लिखता हूं।" मेहता लखमसी ने तीव्र गति से इस प्रकार लिखना प्रारम्भ किया मानो पत्रों पर मोतियों की लड़ियां बिछा रहे हों। मेहता लखमसी के अतीव सुन्दर अष्टपूर्व अद्भत् लेखन को देखकर मुनि खेमसी के आश्चर्य का पारावार न रहा। उसने तत्काल लखमसी द्वारा लिखे गये पत्र को अपने गुरु अानन्द विमलसूरि के पास ले जाकर कहा-"प्राचार्यदेव ! देखिये मोती के समान कितने सुन्दर, कितने स्वच्छ अक्षर हैं ?" आचार्य प्रानन्दविमलसूरि ने अपलक उन अक्षरों की ओर गौर से देखते हुए अपने शिष्य से पूछा - "वत्स ! ये किसके अक्षर हैं, मोती तुल्य ?" मुनि खेमसी ने तत्काल उन दोनों बन्धुओं को अपने गुरु के समक्ष उपस्थित करते हुए कहा"भगवन् ! इन मेहता लखमसी के समान सुन्दर अक्षर लिखने वाला मैंने आज तक न तो कहीं देखा है और न कानों सुना ही है।" दोनों ने प्राचार्यश्री को वन्दन किया । उन दोनों भव्य एवं सौम्य आकृति के युवकों को देखकर प्राचार्य आनन्दविमल बड़े हर्षित हुए। उन्होंने उन दोनों बन्धुओं से पूछा--"आप कहां के रहने वाले हो?" उनके मुख से उनका पूर्ण परिचय सुनकर आचार्यश्री प्रानन्दविमलसूरि ने कहा-“अब तुम हमारे पास ही रहो और शास्त्रों के लेखन का कार्य करो।" मेहता लखमसी ने तत्काल आगमों के लेखन का कार्य सहर्ष अपने हाथ में लिया और दत्तचित्त हो आगमों को लिखना प्रारम्भ किया। उन्होंने वि० सं० १५२१ की चैत्र कृष्णा अष्टमी के दिन प्रभात के प्रथम प्रहर में श्रेष्ठ मुहूर्त में दशवैकालिक सूत्र का आलेखन सम्पन्न किया। इस सूत्र को पढ़ने एवं लिखने से उनके अन्तर्चक्षु उन्मीलित हो गये । उन्होंने देखा और अनुभव किया कि आगमों में तो जिनेश्वर महाबीर ने दयामूलक अहिंसा धर्म को ही सच्चा धर्म बताया है । इस सूत्र में जो दशविध यतिधर्म बताया गया है, उससे आज के श्रमण-श्रमरणी वर्ग का प्राचार-विचार नितान्त विपरीत एवं पूर्णतः भिन्न दृष्टिगोचर हो रहा है। यत्र-तत्रसर्वत्र जहां भी देखो चारों ओर मुख्यतः शिथिलाचार का, प्रागमविरुद्ध आस्थाआचार-विचार और व्यवहार का प्राधिपत्य दृष्टिगोचर हो रहा है । इन आगमों के' बिना इनमें प्रतिपादित-प्ररूपित किया गया सच्चा धर्म मार्ग मुमुक्षुत्रों-भव्य प्राणियों को कैसे बताया जा सकेगा। उन्होंने चिन्तामग्न हो मन ही मन सोचा-"ये जो आगम मैं लिखता हूं, ये तो सबके सब ही पोशालधारी आचार्यश्री आनन्दविमल Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002074
Book TitleJain Dharma ka Maulik Itihas Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj
PublisherJain Itihas Samiti Jaipur
Publication Year1995
Total Pages880
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size16 MB
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