SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 747
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ७२८ ] [ जैन धर्म का मौलिक इतिहास-भाग ४ "लोंकागच्छ किस प्रकार और कब प्रचलित हुअा इस सम्बन्ध में ध्यान देकर सुनिये। मरुधरा (मारुमण्डल अथवा मारवाड़) में खेरंटिया नामक एक (नगर) ग्राम था। वहां पर (वि० सं० १५१५ में जोधपुर नामक नगर बसाने वाले) मरुधराधीश राव जोधा के पुत्र रतनसिंह के पुत्र दुर्जनसिंह का शासन था जिसका कि १६०० गांवों पर आधिपत्य था। दुर्जनसिंह के कोषागार धन से परिपूर्ण थे। उसके द्वारा शासित प्रदेश में इभ्य (श्रीमन्तों में अग्रगण्य) श्रेष्ठिवरों के बड़ी भारी संख्या में घर थे। दुर्जनसिंह के महता जाति के कामदार के दो पुत्र थे। एक का नाम था जीवराज और दूसरे का नाम था लखमसी। वे दोनों दुर्जनसिंह के हाकिम (प्रशासक) एवं खरतरगच्छ के जीवाजीवादि तत्वों के ज्ञाता श्रावक थे। वे दोनों भाई राज्य भर में अग्रगण्य माने जाते थे। ___ एक दिन खरंटिया के शासक दुर्जनसिंह ने मेहता जीवराज और लखमसी पर किसी अपराध का आरोप लगा उनके घर पर अधिकार कर उनका सर्वस्व लूट अपने अधिकार में कर लिया। सर्वस्वापहरण के परिणामस्वरूप जीवराज और लखमसी नितान्त निराधार एवं निर्धन हो गये। आजीविकोपार्जन के लिए उन दोनों भाइयों को अपनी जन्मभूमि मरुधरा को छोड़ने के लिए बाध्य होना पड़ा और वे गुजरात की ओर प्रस्थित हो क्रमशः अनहिलपुर पत्तन पहंचे। वहां वे पूनमियां गच्छ के पोसालधारी आचार्य आनन्दविमल की पोसाल में गये । श्री आनन्द विमल के ७३० शिष्यों का परिवार था। वहां शिथिलाचार का साम्राज्य देख उन दोनों मेहता बन्धुओं को दुःख के साथ-साथ ही धर्म के सम्बन्ध में बड़ी चिन्ता हुई । श्री प्रानन्दविमल के मुनि खेमसी नामक एक शिष्य को कुछ लिखते हुए देखकर वे दोनों भाई मुनि के पास गये और उन्हें नमन करने के पश्चात् पूछा-"महाराज आप यह क्या लिख रहे हैं ?"" १. . लोंकागच्छ ते जाणिये रे, निकल्यां नो अधिकार ।। मारुमण्डल जाणिये रे शहर खरंटियो तिहां । तेह नगर नो राजवी रे, योधावत नरनाह ।।। दुर्जनसिंह ये जाणिये रे, रतनसिंह का पूत । सोलह से ग्राम तेहने घरे रे, दुर्जनसिंह नरिन्द । तेहना हाकम जाणिये रे, महता जीवराज लखमिंद ।।१६।। कोई अन्याय ज नांख ने रे, कामदार गृह सविशेष । • घर सर्वे लूटि लियो रे, किया निर्धन एह जी ।।१८।। एकपातरियागच्छ पट्टावली (अप्रकाशित) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002074
Book TitleJain Dharma ka Maulik Itihas Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj
PublisherJain Itihas Samiti Jaipur
Publication Year1995
Total Pages880
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size16 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy