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सामान्य श्रुतधर काल खण्ड २ ]
लोकाशाह
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शब्दों का अर्थ है 'चोर, लुटेरा अथवा डाकू'। इस प्रकार की स्थिति में कोई भी सभ्य संघ अपने आपको चोर लुटेरे और डाकुओं का गच्छ अथवा समूह इस नाम से अभिहित किया जाना कभी स्वेच्छा से स्वीकार नहीं कर सकता। इसके साथ ही इस विशुद्ध साधु परम्परा के विरोधी, प्रतिपक्षी अनेक गच्छों ने अपनी पट्टावलियों, कविताओं, चौपाइयों, भासों आदि में इस परम्परा के लिए 'लूकागच्छ', 'लूपकगच्छ' अथा 'लंपाकमत' इन अशिष्ट एवं अभद्र शब्दों का प्रयोग किया है । इस प्रकार के अभद्र शब्दों का इस विशुद्ध श्रमण परम्परा के लिए प्रयोग आज भी प्रतिपक्षी गच्छों के साहित्य में यत्र-तत्र दृष्टिगोचर होता है । इसके साथ ही लोंकागच्छ की अनेकानेक पट्टावलियों में यह स्पष्ट उल्लेख है कि लोकाशाह द्वारा किये गये धर्मोद्धार के परिणामस्वरूप जो विशुद्ध साधुमार्ग अथवा दयामार्ग की परम्परा प्रचलित हुई, उसका नाम विरोधियों ने विद्वेषाभिभूत हो लूकागच्छ अथवा लोंकागच्छ रक्खा।
___ अब शेष रहा एक ही नामकरण, और वह है जिनमती। बड़ौदा यूनीवर्सिटी में उपलब्ध गच्छाचार विधि और खम्भात सिंघवी पोल भण्डार से प्राप्त पट्टावली के उपरिलिखित उल्लेखों पर निष्पक्ष एवं गम्भीर दृष्टि से विचार करने पर यही सिद्ध होता है कि पूर्व काल में शताब्दियों तक सुविहित परम्परा के नाम से पहिचानी जाती रही अथवा लोक में प्रसिद्ध रही परम्परा को आगमों के परिवेष में जन-जन के समक्ष प्रकाश में लाते हुए लोकाशाह ने उस समय इस शास्त्रीय विशुद्ध श्रमणाचार की परम्परा को जिनमत के नाम से अभिहित किया था। इसी कारण उपरोक्त दो पत्रावलियों में इस परम्परा की जिनमती के नाम से पहिचान कराई गई है। लोकाशाह ने आगमों पर आधारित इस विशुद्ध परम्परा का नाम जिनमती रखा था, इसकी पुष्टि श्रावकों द्वारा श्रमणोत्तमों की सेवा में प्रस्तुत किये गये विनती पत्रों में उनके नाम के आगे अथवा पीछे 'जिनमती' शब्द के प्रयोग से भी होती है। उपरिलिखित तथ्यों से तो निस्सन्देह रूप से यही सिद्ध होता है कि इस लोंकागच्छ परम्परा का नाम सर्वप्रथम 'जिनमती' रक्खा गया था। जिनेश्वर प्रभु श्रमण भगवान् महावीर द्वारा चतुर्विध तीर्थ के रूप में स्थापित की गई विश्वकल्याणकारिणी धर्म परम्पराको लोंकाशाह द्वारा जिनमती नाम की संज्ञा देना सभी भांति समुचित प्रतीत होता है ।
आशा है इतिहास के विद्वान् एवं शोधरुचि विज्ञ इस सम्बन्ध में गहन शोध कर और अधिक प्रकाश डालने का प्रयास करेंगे।
पोतियागच्छ के नाम से प्रसिद्ध एकपातरिया गच्छ के राजकवि श्री रायचन्द मुनि द्वारा वि० सं० १७३६ की भाद्रपद शुक्ला पंचमी, सोमवार के दिन इन्दौर नगर में रचित एक पातरिया गच्छ पट्टावली में महान् धर्मोद्धारक, दया-धर्म प्रचारक वीर लोकाशाह का विस्तार के साथ परिचय दिया है, जो इस प्रकार है :
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