________________
७२६. ]
[ जैन धर्म का मौलिक इतिहास-भाग ४
लोकागच्छ परम्परा का मूल नाम 'जिनमती'
जिस प्रकार बड़ौदा यूनिवर्सिटी में उपलब्ध गच्छाचार विधि नामक तीन पत्रों की छोटी-सी पुस्तिका के पृष्ठ पांच और छः पर सम्वत्वार ऐतिहासिक घटनाओं के उल्लेख में क्रम संख्या १७ पर उल्लेख है कि “वीर निर्वाण सम्वत् २००० वर्षे लोंका (लोके का) जिनमती सत्य प्ररूपणा ना करणहार हुआ ।।६।।, ठीक इसी.प्रकार खम्भात की सिंघवी पोल भण्डार से प्राप्त सम्वत् १८३४ में लिखित पांच पत्र की पट्टावली के दसवें पृष्ठ पर यह उल्लिखित है कि 'वीर पछे दो हजार (२०००)........' २३ वर्षे जिनमती हुआ। परवादी ई 'लोंका' कह्या।"
इस प्रकार के ये उल्लेख प्रत्येक जैन धर्मावलम्बी विज्ञ और मुख्यतः इतिहास के विद्वानों एवं शोधार्थियों के लिये बड़ा ही चिन्तनीय एवं मननीय है। विशेषकर उस स्थिति में जबकि साधुमार्गी परम्पराओं के साधुओं अथवा प्राचार्यों की सेवा में किसी क्षेत्र विशेष के श्रावकों द्वारा अपने क्षेत्र में चातुर्मास करने हेतु जो विनन्तिपत्र शताब्दि दो शताब्दि पूर्व के अतीत काल में भेजे गये, उनमें उन प्राचार्यों अथवा साधुओं के नाम के पूर्व 'जिनमति' विशेषण लगे पत्र अद्यावधि कहीं-कहीं उपलब्ध होते हैं । आचार्यश्री विनयचन्द ज्ञान भण्डार, जयपुर में इस प्रकार का एक 'विनतीपत्र' आज भी सुरक्षित है जिसे प्रत्येक जिज्ञासु देख सकता है।
इन उल्लेखों पर गम्भीरतापूर्वक विचार करने पर प्रत्येक विज्ञ के अन्तर्मन में इस प्रकार के विचार का उत्पन्न होना सहज ही सम्भव है कि वीर निर्वाण सं० २००१ में धर्मप्राण वीर लोकाशाह ने धर्मोद्धार कर आगमों पर आधारित विशुद्ध साधुमार्गी परम्परा का पुनरुद्धार किया। उस समय चैत्यवासियों, यतियों एवं शिथिलाचारग्रस्त अन्यान्य परम्पराओं से इस विशुद्ध साधुमार्गी परम्परा की पृथक् पहचान के लिये वस्तुतः इसका कोई न कोई नाम तो अवश्यमेव रक्खा होगा और वह नामकरण भी इस परम्परा के प्रादुर्भाव के साथ ही स्वयं लोकाशाह द्वारा अथवा लोंकाशाह की विद्यमानता में इस विशुद्ध परम्परा के अनुयायियों द्वारा ही रक्खा गया होगा। समस्त जैन वांग्मय के आलोडन के उपरान्त भी अद्यावधि उपलब्ध जैन साहित्य में इस परम्परा के-लोंकागच्छ, लूंपकगच्छ, लूंपाकगच्छ और जिनमती-इन चार नामों के अतिरिक्त और कोई नाम उपलब्ध नहीं होता। जहां तक लोंकागच्छ नामकरण का प्रश्न है, लोकाशाह जैसे आदर्श, त्यागी और जिनशासन प्रेमी महापुरुष अपनी विद्यमानता में किसी भी दशा में प्रभु महावीर के महान् धर्म संघ का नाम अपने नाम पर “लोंकागच्छ' रखने के लिये सहमत नहीं हो सकते थे । 'लूपकगच्छ' और 'लूंपाकगच्छ' इन दो नामों से इस विशुद्ध परम्परा का नामकरण किये जाने का जहां तक प्रश्न है 'लूपक' और 'लूंपाक' इन दोनों
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org