________________
सामान्य श्रुतधर काल खण्ड २ ]
लोकाशाह
[ ७२५ में विकार उत्पन्न हुअा। तदनन्तर उसने सैयद की संगति से जैन धर्म की सब क्रियाओं का नास्तिकपना (लोप-निषेध अथवा विरोध) कर अपना नया मत निकाला।"
(७) जैन प्रकाश दिनांक १८-८-३५ के पृष्ठ ४७५ पर प्रकाशित 'धर्म प्रारण लोकाशाह' शीर्षक लेख में सन्तबालजी ने लोकाशाह के जीवन पर प्रकाश डालते हुए निम्नलिखित रूप में अपना अभिमत प्रकट किया है
"लोकाशाह खुद गृहस्थ पणां मां रह्या अने ४५ मनुष्यों ने दीक्षा लेवा नी अनुमति प्रापी।"........ (इसके आगे आप फूट नोट में लिखते हैं कि)-कई-कई स्थले एहवो पण मले छै कि लोंकाशाह पोते पण दीक्षित थया हता, अने तेथीज तेमनो अनुयायी वर्ग लोकामत तरीके पाछल नथी। आ वक्ते लोकाशाह नी वय खूबज वृद्ध थई गई हती। अने पा ४५ दीक्षा थया पछी टुंकज वगत मां तेम नो देहान्त थयो छै। एटले तेरो नी त्याग दशा उत्कृष्ट होवा छतां, गृहस्थ छतां पण सन्यास एवा रह्या, दीक्षा लई शक्या नथी ।........'
(८) साधु विनयर्षिजी ने दिनांक ४-४-३६ के बम्बई समाचार नामक पत्र में प्रकाशित अपने लेख में लिखा है
"श्रीमान् धर्म प्राण लोंकाशाह नी उमर ए समये मोटी हती, तेस्रो गृहस्थवास मां साधु जीवन गालता हता।"
(६) स्वामी मणिलालजी ने अपनी कृति 'प्रभुवीर पट्टावली' के पृष्ठ १७० पर लिखा है
लोकाशाह अकेले पाटन यति सुमतिविजयजी के पास गये और उनसे दीक्षा ग्रहण कर अपना नाम लक्ष्मीविजय रक्खा। यह दीक्षा भी चातुर्मास में अर्थात् विक्रम सम्वत् (१५०६) १५०६ श्रावण शुक्ला ग्यारस को ली थी।"
(१०) खम्भात के संघवी पोल भण्डार से उपलब्ध हुई पट्टावली के साथ संलग्न “सात इन्च लम्बे, तीन इन्च चौड़े दो जीर्णपत्रों की फोटो प्रति में भी "चौरासी गच्छ महात्मा' शीर्षक के नीचे क्रम संस्था ८ पर लोंकाशाह के स्वयं दीक्षित होने का उल्लेख है जो इस प्रकार है -
(क्रमसंख्या ८) “सम्वत् १५३१ जती स्वयमेव लूंकोशाह को हुमो।" अर्थात् विक्रम सम्वत् १५३१ में लोंकाशाह ने दीक्षा ग्रहण की पौर वे पति अर्थात् श्रमण हुए । दीक्षा उन्होंने स्वयमेव ग्रहण की थी।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org