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[ जैन धर्म का मौलिक इतिहास-भाग ४
२. लोकाशाह की दीक्षा के सम्बन्ध में शाह वाडीलाल मोतीलाल ने
लोकाशाह के मुंह से कहाया है- "मैं इस समय बिल्कुल बूढ़ा और अपंग हूं, ऐसे शरीर से साधु की कठिन क्रियाओं का साधन होना अशक्य है। मेरे जैसा मनुष्य दीक्षा लेकर जितना उपकार कर सके, उससे ज्यादा उपकार संसार में रहकर कर सकता है।"
-ऐतिहासिक नौंध पृष्ठ ७४, ७५ । ५. स्वामी मणिलालजी महाराज साहब ने अपनी रचना 'प्रभु वीर पट्टाबली' के पृष्ठ १७० पर लोंकाशाह के जीवन से सम्बन्धित घटना पर प्रकाश डालते हुए लिखा है :
"संघ ना श्रद्धालु तत्काल झवेरीवाड़ा ना उपाश्रय (जिहां लोंकाशाह उपदेश प्रापता हथा) आव्या अने लोकाशाह ने संघ नी मालकी नो मकान खाली करवा धमकी पापी। लोकाशाहे आवेल श्रावकों ने समझावा नी कोशिश करी पण यतियों नी सज्जड उष्करणी ने कारणे यतिभक्तो ए काई दाद न दीधी । एटलुंज नहीं, पण तेमां ना केटलाक स्वच्छन्दी श्रावको पागल प्रावी श्रीमान् ने बलजबरी थी उपासरा नी बाहर कहाडवा नुं प्रयत्न करवा लाग्या, एटले लोकाशाह स्वयं (पोते) तरतज उपाश्रय थी निकली गया ।........"
(६) जैन साहित्य संशोधक वर्ष ३-३-४८ में गुजराती भाषा में प्रकाशित बीर वंशावली में लोंकाशाह के जीवन की घटना के सम्बन्ध में जो प्रकाश डाला गया है, उसका हिन्दी रूपान्तर निम्न प्रकार है
............"लोकाशाह यतियों के उपाश्रय में लिखाई का काम करते थे। उनकी मजदूरी के पैसे श्रावक लोग ज्ञानखातों में से दिया करते थे। एक बार एक पुस्तक की लिखाई का पारिश्रमिक दे देने पर केवल साढ़े सत्तर दोकडे देने शेष रह गये और इसीलिये लोकाशाह और श्रावकों के बीच परस्पर तकरार हो गई । लोकाशाह यतियों के पास आया। यतियों ने कहा-"लूंका ! हम तो पैसे रखते नहीं हैं। तुम श्रावकों से अपना हिसाब ले लो। यह सुन लोंका को क्रोध आया और वह साधुओं की निन्दा करता हुआ बाजार में एक हाट पर आकार बैठ गया। इधर एक मुसलमान लिखारा (लेखक) जो मुसलमानों की पुस्तकें लिखता था और लोकशाह का मित्र था, वह भी पा निकला। उसने लोकाशाह के ललाट पर चन्दन का तिलक देखकर उनसे पूछा-"क्यों लोकाशाह ! तेरे भाल पर क्या है ?" लोकाशाह ने कहा-“मन्दिर का स्तम्भ (तिलक)।" इस पर सैयद ने लोकाशाह को नास्तिकता का उपदेश दिया और लोकाशाह की बुद्धि
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