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________________ ७३० ] . [ जैन धर्म का मौलिक इतिहास-भाग ४ सूरिजी ले लेते हैं। इस प्रकार की स्थिति में किस प्रकार इन आगमों की और अधिक प्रतियां लिखवाई जायं तथा किस प्रकार अथाह संसार सागर से उद्धार करने वाले इस सच्चे दयाधर्म का प्रचार किया जाय । शास्त्र प्ररूपित सच्चे धर्म के प्रचारप्रसार के लिये इन शास्त्रों की अनेक प्रतियों का होना अनिवार्य रूपेण आवश्यक है। यह कार्य किसी उदारमना धर्मनिष्ठ श्रीमन्त की सहायता के बिना नहीं हो सकता। ___ इस प्रकार विचार कर मेहता लखमसी अनहिलपुरपत्तन नगर में श्रेष्ठियों की वसति की अोर प्रस्थित हुए। नगर में स्वधर्मी बन्धुओं से बातचीत करते समय उन्हें ज्ञात हुआ कि पाटण का नगरश्रेष्ठि रूपसी बड़ा ही उदारमना एवं धर्मनिष्ठ महादानी है । मेहता लखमसी नगरसेष्ठि रूपसी से मिले । आतिथ्य सत्कार के अनन्तर रूपसी ने मेहता लखमसी से पूछा-"बन्धुवर ! आप यहां किस स्थान पर रहते हैं, आपका मूल निवास स्थान कहां है, आप किस धर्म के उपासक हैं तथा आपकी साख (वंश शाखा) और जाति क्या है ?" लखमसी बोला-"श्रेष्ठिवर ! मेरा नाम लखमसी, धर्म-जैन धर्म, मेरी शाख बीसा श्रीमाली और जाति महता है। मैं खरतरगच्छ का उपासक हूं। मैं मरुधरदेश के खरन्टियावास नामक नगर का रहने वाला हूं।" इस पर रूपसी ने प्रश्न किया-"आप मेरे पास किस उद्देश्य से आये हैं ? व्यापार सम्बन्धी किसी कार्य से आये हैं अथवा अन्य किसी कार्य से ?" लखमसी ने उत्तर दिया-"मैं आपके पास धर्म-कार्य से सम्बन्धित समस्या को लेकर आया हूं। तीर्थंकर भगवान् महावीर ने चतुर्विध तीर्थ की स्थापना करते समय अहिंसा, संयम और तप स्वरूप दयाधर्म की प्ररूपणा की थी, यह हमारे धर्मशास्त्रों से कोटि-कोटि सूर्यों के प्रकाश की भांति स्पष्टतः प्रकट होता है। किन्तु कालान्तर में (अन्तिम पूर्वधर आचार्य देवद्धिगणि क्षमाश्रमण के वीर नि० सं० १००० में स्वर्गस्थ हो जाने के अनन्तर) शिथिलाचारी, परीषहभीरु श्रमणों ने आगमों में प्रतिपादित एवं श्रमण भगवान् महावीर द्वारा प्रदर्शित मूल एवं शुद्ध १. तब त्यां लखमसी चिन्तवे, केम कर पुस्तक लखाय । इतो लखूछूएहना, ते तो सर्व ले जाय ।। दयाधर्म किम चालसे, केम तरवा नो उपाय ॥१॥ मन में एहवो चिन्तवी, पहुंता नगर मझार । एहवो कोई श्रीमन्तछे. दया धर्म चलाय ।।२।। -एक पातरिया गच्छ पट्टावली-हस्तलिखित (प्रा० श्री विनयचन्द्र ज्ञान भण्डार, जयपुर) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002074
Book TitleJain Dharma ka Maulik Itihas Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj
PublisherJain Itihas Samiti Jaipur
Publication Year1995
Total Pages880
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size16 MB
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