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________________ ७२० ] [ जैन धर्म का मौलिक इतिहास-भाग ४ उल्लिखित सम्वत् १४२८ शक सम्वत्सर भी नहीं हो सकता क्योंकि शक सम्वत्सर विक्रम संवत्सर से १३५ वर्ष पश्चात् प्रचलित हुआ । और इस दृष्टि से इस पट्टावली में उल्लिखित सम्वत् १४२८ को शक सम्वत्सर मान लिया जाय तो लोकाशाह के अस्तित्व और लोंकागच्छ के प्रादुर्भाव का समय विक्रम सम्वत् १५६३ तक का आ पहुंचता है जो लोकाशाह और लोंकागच्छ विषयक आज तक उपलब्ध हुए उल्लेखों को दृष्टिगत रखते हुए किसी भी दशा में किंचित्मात्र भी संगत प्रतीत नहीं होता। इस प्रकार की स्थिति को देखते हुए ऐसा लगता है कि सम्वत् के उल्लेख में किसी लिपि कार के प्रमाद से ५ के स्थान पर चार लिखने की त्रुटि हो गई है । तथापि इस आशंका के लिये अवकाश रह जाता है कि इस पट्टावली में उल्लिखित सम्बत् शक संवत्सर और विक्रम सम्वत्सर से भिन्न कोई दूसरा सम्वत्सर तो नहीं है। इस प्रश्न को हम संवत्सर का निर्णय करने में निष्णात शोधार्थियों पर छोड़कर केवल इतना ही कहना चाहते हैं कि इस पट्टावली में उल्लिखित जो सम्वत् है वह विक्रम सम्वत् १५२८ होना चाहिये । वस्तुतः लिपिकार ने पांच के अंक को चार भ्रांति से लिखने जैसी अथवा अन्य कोई त्रुटि कर दी है। बड़ौदा यूनीवर्सिटी में उपलब्ध यति हेमचन्द्रजी की पट्टावली में लोंकाशाह की १५२ संघवियों के साथ दीक्षित होने की बात का समर्थन शास्त्रोद्धारक श्री अमोलक ऋषिजी महाराज ने भी अपनी कृति 'शास्त्रोद्धार मीमांसा' में किया है। जो इस प्रकार है : "उस समय वहां अहमदाबाद शहर में राजमान्य श्रीमान् धर्मात्मा पुण्य प्रभाविक प्रभावशाली दृढ़धर्मी धर्म धुरन्धर कार्यदक्ष और अर्द्ध मागधी भाषा के ज्ञाता तथा शीघ्रता से सुन्दर व शुद्ध लिपि लिखने वाले लोकाजी नामक श्रावक रहते थे। वे साधु दर्शन के प्रेमी होने से प्रातः काल में यतियों के दर्शनार्थ उस उपाश्रय में आये, लोंकाजी को देख यतियों को बहुत खुशी हुई। खुश होकर मानपूर्वक वचनों से वे कहने लगे कि :"अहो शाहजी ! आपके योग्य एक महा कार्य है। यदि आप उस कार्य को करेंगे तो जैन धर्म को चिर स्थायी बनाने के लाभ के सद्भागी बनोगे। जैन समाज पर आपका बड़ा भारी उपकार होगा। इसमें आपको परिश्रम तो जरूर होगा परन्तु आप सिवाय अन्य कोई भी इस कार्य को करने की योग्यता रखने वाला नहीं है । इसलिये आपको ही चेताया है। उक्त प्रकार से यतियों के वचन श्रवण करके लोकाजी आश्चर्यचकित बने और नम्रता पूर्वक कहने लगे कि कहिये महाराज ! मेरे लायक ऐसा कौनसा काम है। उसे मैं भी यथाशक्ति करना चाहता हूं। तब उन यतियों ने जीर्ण पर्याय प्राप्त हुए शास्त्र लोकाजी को बताये और कहने लगे कि इनकी पुनरावृत्ति लिखकर जीर्णोद्धार करने की परम आवश्यकता है। क्योंकि इस पंचम आरे में जिन प्रणीत धर्म को चिर स्थायी रखने का यह एक ही उपाय है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002074
Book TitleJain Dharma ka Maulik Itihas Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj
PublisherJain Itihas Samiti Jaipur
Publication Year1995
Total Pages880
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size16 MB
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