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________________ सामान्य श्रुतधर काल खण्ड २ ] लोकाशाह [ ७१६ करने लगे, उस समय इन्द्र ने उनके समक्ष उपस्थित हो प्रार्थना की हे भगवन् ! आपके जन्म नक्षत्र पर भस्म ग्रह लगा हुआ है। अतः इस समय यदि आप दो घड़ी का अपना अायुष्य और बढ़ा लें तो आपके संघ पर जो दो हजार वर्ष तक भस्मग्रह के प्रभाव से अनिष्ट प्रभाव पड़ने वाला है, वह दो घडी आयुष्य बढ़ाने से पूरी तरह टल जावेगा।" इस पर प्रभु महावीर ने इन्द्र से कहा- "हे शक्र ! यह कदापि सम्भव नहीं है क्योंकि तीर्थंकर कभी अपने बल को नहीं फोडते अर्थात् अपने अनन्त बल का उपयोग नहीं करते ।" इस पर इन्द्र ने प्रभु से पूछा - "हे प्रभो ! यह जीवदयामूलकधर्म पुनः कब से अभ्युदित हो उद्योतित होगा।” प्रभु महावीर ने फरमाया :- “जीवा और रूपा (जीवा ऋषि और रूपजी ऋषि) ये दो भव्य होंगे। उनसे जीव दयामूलक धर्म पुनः उद्योतित होगा।" तदनन्तर (तीन मास पश्चात्) ऋषि लोंका ने अनशन किया और तीन दिन के अनशन से वे स्वर्गस्थ हुए। वे स्वर्ग में देवरूप से उत्पन्न हुए। उसी मध्य रात्रि में देव रूप से उत्पन्न हुए लोंका ऋषि के जीव ने आकाश में आकर उन १५२ साधुनों को सूरिमन्त्र दिया और उनसे कहा- मैं लोंका ऋषि का जीव हूं। देवलोक में देव रूप से उत्पन्न हो गया हूं। वस्तुतः यह लोंकागच्छ सत्य है।" यह कहकर देव तिरोहित हो गया और उन १५२ साधुओं ने प्रातःकाल होते ही सूरिमन्त्र को पत्रों पर लिख लिया। .. इस प्रकार के उल्लेख के अनन्तर लोकाशाह को लोंकागच्छ का प्रथम पट्टघर बताते हुए उनके पश्चात् हुए इक्कीस पट्टधरों के दीक्षाकाल, आचार्यकाल आदि पर प्रकाश डालते हुए उनका संक्षेप में परिचय दिया गया है। इस पट्टावली में लोंकागच्छ के प्रथम प्राचार्य लोकाशाह से लेकर बावीसवें पट्टधर खूबचन्दजीसूरि ((सम्वत् १६२४) से लेकर (१९८२)) तक का जो परिचय दिया गया है उसमें सबसे महत्वपूर्ण विचारणीय प्रश्न यह है कि क्या लोंकागच्छ के प्रवर्तक लोकाशाह ने विक्रम सम्वत् १४२८ में ही लोंकागच्छ का प्रवर्तन कर १५२ संघवियों के साथ दीक्षा लेली थी। जब कि इसके अतिरिक्त जैन वाङमय में जितने भी उल्लेख हैं वे सब विक्रम सम्वत् १५०८, विक्रम सम्वत् १५३१ और विक्रम संवत् १५३३ से लोंकागच्छ के प्रारम्भ होने की बात कहते हैं। यह अस्सी से लगभग एक सौ वर्ष का अन्तर वस्तुतः विचारणीय है। पट्टावली के उपर्युल्लिखित उल्लेख में विक्रम सम्वत् के स्थान पर केवल सम्वत् का ही उल्लेख किया गया है। इससे सहज ही मन में यह आशंका उत्पन्न होती है कि यह विक्रम की अपेक्षा कोई अन्य सम्वत् तो नहीं है । मध्य युग में भारत के विभिन्न प्रान्तों में और मुख्यतः गुर्जर प्रदेश में शक संवत्सर भी प्रचलित था किन्तु इस पट्टावली में Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002074
Book TitleJain Dharma ka Maulik Itihas Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj
PublisherJain Itihas Samiti Jaipur
Publication Year1995
Total Pages880
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size16 MB
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