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सामान्य श्रुतधर काल खण्ड २ ]
लोकाशा
। ७२१ इस समय तीर्थंकर, केवलज्ञानी, श्रुत-केवली, पूर्वधर प्रमुख धर्माधिकारियों को तो साफ विच्छेद हुआ है। अब तो जो कुछ ज्ञान दान दाता धर्मात्मा को परमाश्रयदाता, महा उपकार कर्ता और पूर्ण विश्वसनीय यह जिनेश्वर जैसे जिनेश्वर के वचन ही रहे हैं। आगे जैनधर्म इन शास्त्रों के आधार से ही चलेगा। इसलिये यह महा उपकारी काम आपको जरूर करना चाहिये ।
उक्त प्रकार का आग्रह पूर्वक मुनियों के वचन लोंकाजी श्रवण कर जीर्ण शास्त्रों का अवलोकन कर शास्त्रोद्धार कार्य अपने व अन्य अनेकों की आत्मा के परोपकार का कार्य जानकर उस कार्य करने स्वात्म शक्ति का भान कर महालाभ वाले कार्य को अपने हाथ से करने के लिए उत्साही बने । और कहने लगे कि इन सब शास्त्रों में से प्रथम कोई छोटा शास्त्र दीजिये । उसकी पुनरावृत्ति करके आपको दिखला दूं। आपको जिससे यह मालूम होवे कि यह कार्य यथायोग्य हुअा है तो आगे अन्य शास्त्र लिखना प्रारम्भ करूगा। इस प्रकार लोकाजी के वचन सुनकर उन यतिवर्य ने बहुत प्रसन्नतापूर्वक छोटा सूत्र दशवैकालिक निकालकर लोंकाजी को दिया । लोंकाजी उसे अपने घर ले गये । उसे दत्तचित्त से आद्यन्त पठन कर बड़े ही प्रानन्दाश्चर्य में गरकाव बने। जिनेन्द्र पद का अपूर्व पदार्थ उनको मालूम हुआ । वर्तमान साधुओं के आचार और शास्त्र कथित प्राचार में महदाकाशी अन्तर दिखा । परन्तु अपनी ज्ञानान्तराय के क्षयार्थ मौन रहे और अपने को सदा ज्ञान लाभ मिलता रहे, इस बुद्धि से उसकी दो प्रति लिखने लगे। पूर्ण प्रति लिखने के बाद दो प्रतियां यतियों को ले जाकर बताई। यतिजी के पूछने पर कहा कि एक आपके लिये लिखी, और एक मेरे लिये लिखी है । यह सुनकर वे सरल स्वभावी और ज्ञानप्रेमी यतिजी खुश होकर बोले अच्छा आप भी पढ़ना और हमारे शिष्यों को भी पढ़ाना। यों कह और भी शास्त्र निकाल कर लोंकाजी को दे दिये । इस प्रकार यतियों की आज्ञा से प्रत्येक शास्त्र की दो-दो प्रतियां लिखने लगे। एक-एक उन्हें देते गये और एक-एक अपने पास रखी। इस प्रकार लोंकाजी के पास जैन शास्त्र का भण्डार हो गया।
लोंकाजी शास्त्रों का जीर्णोद्धार कर रहे हैं ऐसा जानकर बहुत अन्य भव्य ज्ञानार्थी लोंकाजी के पास आने लगे । शास्त्रार्थ पूछने लगे। लोंकाजी भी उनको जिन प्रणीत और गणधर रचित शास्त्रों का श्रवण कराकर सन्तोषित करने लगे। इस प्रकार जिनप्रणीत, गणधर रचित शास्त्रों की अपूर्व वाणी श्रवण करने से भव्य जनों का चित्त आकर्षित होने लगा। प्रतिदिन श्रोताओं की संख्या वृद्धि पाने लगी। परिषदा में अपूर्व आनन्द प्राप्त होने लगा। सच्चे अखण्डित साधु समाचारी का लोगों को भान
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