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[ जैन धर्म का मौलिक इतिहास - भाग ४
" सम्वत् २००० ( वीर निर्वाण ) वर्षे लोकेशाह जिनमती सत्य प्ररूपणा ना करणहार हुया । ।”
Master यूनीवर्सिटी की पुस्तक संख्या २०८३ में लोंकाशाह द्वारा शास्त्रों के लेखन काल पर प्रकाश डालते हुए उल्लेख किया गया है :
" सम्वत् पनर अठोतर ऊ जाणिसं लुकुं लेहउ मूलि निसाणी" अर्थात् विक्रम सम्वत् १५०८ में अहमदाबाद में लुंका ने शास्त्र लेखन का कार्य किया ।
"अथ लुंका री उत्पत्ति कहे छै । सम्वत् १५२८ रा पनरे से अट्ठावीसा वर्षे श्री अनहल्लपुरे पाटण मध्ये मुहता लक्का सुबुद्धि ए श्री सूत्र सिद्धान्त लखता थका सूत्रार्थ विचारी ने मन में विचारते - साधु, श्रावक बारव्रत धारी ने प्रतिमा पूजवी न कही, प्रासाद नो अधिकार नहीं । हबे बीजा यति आचार्य ने धरणाइक तो पौशाल प्रतिमांधारी थया । शुद्ध दयाधर्म री प्ररूपणा कर ने गच्छ काढ्यो । अन्य दर्शनिये कामती नाम कही ने बोलाव्या, तिहां थकी लुकागच्छ री थापणा थई । शुभ बेला ए, शुभ दिने, शुभ पक्षे, शुभ नक्षत्रे, शुभ योगे आव्ये थके लुंका गच्छ री थापना थई । प्रथम भाणा ऋषिए श्री अहमदाबाद मध्ये सम्वत् १५३१ वर्षे जात पोरवाल अरहटवाड़ा ना वासी स्वयमेव दीक्षा लीधी (६२) ते ऋषि मोटे वैरागे संसार असारजाणी एक लाख रुपया मूकी ने दीक्षा लोधी (६२)
उपाध्याय कमलसिहजी ने अपनी विक्रम सम्वत् १५४४ की ग्रन्थ रचना में लिखा है :
मुनिश्री नागेन्द्र चन्द्रजी ने अपनी पट्टावली में लिखा है :
लोको महतो तिहां वसे अक्षर सुन्दर तास ।
ग्राम लिखवा सूपिया, लिखे शुद्ध सुविलास ।।.
इस प्रकार आपने विना काल निर्देश के लोंकाशाह द्वारा शास्त लेखन के कार्य का उल्लेख किया है ।
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विजयानन्दसूरि ने लोंकाशाह द्वारा प्रजीविकोपार्जन के लिये आगम लेखन करने का उल्लेख करते हुए लिखा है :
" अहमदाबाद में लोंका नामक लिखारी यतियों के उपासरा में पुस्तक लिख के प्राजीविका चलाता था, एक दिन उसके दिल में बेईमानी आई और एक पुस्तक के सात पन्न े बीच में से लिखना छोड़ दिया ।
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