SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 725
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ७०६ ] [ जैन धर्म का मौलिक इतिहास-भाग ४ मांड्यो छै । ................" पीरोजी खान पातशाह अाप रो किशन मन्त्रीसर ने उत्साह (उत्सव) करण ने मेल्यो । हिवे तीनूं जणां तीनपालखियां रे विषे बेसी ने गणा जै जै शव्द हुतां......श्री सिद्धार्थ राजा ना पुत्र परै धणां दान देता थकां......"सयरससाहरी नी सराय ने विषे तीनूं जणां पालख्यां सूं नीचे उतर्या । उतरी ने प्रथम पालावो मुख सू उच्चरी ने प्राभरण समस्त उतार्या । उतारी ने पूर्व सामां तीनूं बैठा। बेसी ने स्व हस्त सू लोच करी ने अरिहन्त सिद्ध साहू ने नमस्कार करी ने पंच महाव्रत रूप सामायिक चारित्र आदर्यो, आदरी ने घणा लोग धन्य-धन्य शब्द करतां थकां श्री चन्द्राप्रभुजी रे देहरे में प्राय ने रह्या । हिवे सिकदार, सेठ साहूकार सर्व प्राय ने श्री हीरागरजी रूपचन्दजी ने प्राचार्यपद दीनो। लूके शाह रो वचन पालियो ने 'नागौरी लूंका' कहाणा।” “रूप ऋषि भास'' में भो हीरागरजी के वि० सं० १५८० में दीक्षित होने का उल्लेख है यथा लंका नागौरी पनरसे असीईं जूदा थया नागोर मझारी। हीरो आचार्य थयो तेणि, चौदस पाखी मां निवारी ।। पावली के उपरिलिखित उल्लेख से तो स्पष्टतः यही प्रकट होता है कि विक्रम संवत् १५७८ से १५८० के बीच रूपचन्दजी और लोकाशाह का मिलन हा और उन दोनों के बीच इस शर्त के साथ प्रतिज्ञा हुई कि रूपचन्दजी क्रियोद्धार के समय अपने गच्छ का नाम लोंकागच्छ रक्खेंगे और लोंकाशाह रूपचन्दजी को शीघ्र ही सब शास्त्रों की प्रतियां लिखकर दे देंगे। पट्टावली में यह स्पष्ट उल्लेख है कि लोंकाशाह जालौर के निवासी थे और उन्होंने विक्रम संवत् १५७८ और विक्रम संवत् १५८० के बीच की अवधि में अथवा इससे कुछ ही वर्ष पूर्व शास्त्र लिखकर दिये थे। नागौरी लोंकागच्छ पट्टावली के इस प्रकार के उल्लेख वस्तुतः जैन वांग्मय के अन्य सभी उल्लेखों को दृष्टिगत रखते हुए किसी भी दशा में विश्वसनीय नहीं गिने जा सकते । लोकाशाह जैसे महान् क्रियोद्धारक, एकान्ततः जिनशासन के उद्धार की उत्कट आकांक्षा वाले महापुरुष अपने नाम पर किसी गच्छ की स्थापना करने की बात कहें। इसका किसी भी विज्ञ को विश्वास नहीं हो सकता । अस्तु वीर लोंकाशाह को विक्रम की सोलहवीं शताब्दि के उत्तरार्द्ध के द्वितीय शतक तक का बताने वाला उल्लेख भी एक गच्छ विशेष की पट्टावली में विद्यमान है। इस बात से इतिहासप्रेमियों, शोधरुचि विद्वानों और पाठकों को अवगत कराने की दृष्टि से नागौरी लोंकागच्छ पट्टावली के उद्धरणों को यहां प्रस्तुत किया गया है। "रूप ऋषि भास" के उपरिलिखित पद्य से स्पष्टतः प्रकट होता है कि वि० सं० १५८० में लोंकागच्छ के नागोर निवासी उपासकों अथवा अनुयायियों ने For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.002074
Book TitleJain Dharma ka Maulik Itihas Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj
PublisherJain Itihas Samiti Jaipur
Publication Year1995
Total Pages880
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size16 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy