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________________ लोकशाह [ सामान्य श्रुतधरं काल खण्ड २ ] लोंकागच्छ से सम्बन्ध तोड़कर 'नागोरी लूंकागच्छ' नामक एक पृथक गच्छ की स्थापना की । इससे यही निष्कर्ष निकलता है कि नागोरी लूंकागच्छ पट्टावली में लूंकागच्छ उत्पत्ति और लोकाशाह सम्बन्धी जितने भी विवरण हैं वे केवल कल्पना या किंवदन्ती रूप हैं । नागौरी लूंकागच्छ पट्टावली का उपर्युक्त उल्लेख जिसमें लोकाशाह के जालौर निवासी होने और वि० सं० १५७८ से १५८० के बीच की अवधि में रूपचन्दजी से मिलने और उनके साथ प्रतिज्ञा के आदान-प्रदान का कथन अन्य गच्छीय एवं पूर्ववर्ती ग्रन्थकारों द्वारा एतद्विषयक लिखे गये विवरणों से भी अविश्वसनीय अथवा अप्रामाणिक सिद्ध होता है । तपागच्छीय उपाध्याय धर्मसागर द्वारा वि० सं० १६२३ में रचित प्रवचन परीक्षा नामक ग्रन्थ में स्पष्ट लिखा है कि लूंका गच्छीय जंगमाल ऋषि के पास रूपचन्द्र सुराणा ने वि० सं० १५८० में स्वयंमेव दीक्षा ग्रहण की और उसी समय से अर्थात् वि० सं० १५८० से नागपुरीय (नागौरी ) लूंका गच्छ नाम से लूंकागच्छ की शाखा प्रचलित हुई । १ न केवल लोंकागच्छ की पट्टावलियां और समस्त लोकागच्छीय वाङ्मय ही अपितु लोकाशाह तथा लोंकागच्छ का प्रति कटु भाषा में खण्डन करने वाले इसके विरोधी गच्छों के विद्वान् लेखकों ने अपनी कृतियों में स्थान-स्थान पर स्पष्ट रूप से यही उल्लेख किया है कि लोकाशाह ने वि० सं० १५०८ में जिनमूर्ति उत्थापक मत की प्ररूपणा की और उनकी उस प्ररूपणा के परिणामस्वरूप अस्तित्व में आये लोकागच्छ में सर्वप्रथम वि० सं० १५३१ में प्रथम वेषधर ऋषि भाणा श्रमरण धर्म प्रव्रजित हुए, इस प्रकार की स्थिति में समवेत स्वरों में, समान शब्दों में प्रकट की गई मान्यताओं के जैन वांड्मय में उपलब्ध होते हुए नागौरी लोकागच्छीया पट्टावली के उपरि वरिंगत उल्लेख पर कोई भी विज्ञ कैसे विश्वास कर सकता है कि लोकाशाह ने वि० सं० १५७८ एव १५८० की अवधि के बीच सर्वप्रथम ग्रागमों का लेखन कार्य कर नागौरी लोंकागच्छ के संस्थापक रूपचन्द्रजी को ग्रागमों की प्रतियां दीं और वि० सं० १५०८ में नहीं ग्रपितु वि० सं० १५८० में लोंकागच्छ सर्वप्रथम अस्तित्व में आया तथा केवल इसीलिए इसका नागौरी लोंकागच्छ नामकरण किया गया कि लोकाशाह ने रूपचन्दजी को आगमों की प्रतियां लिखकर दी थीं । बड़ौदा यूनीवर्सिटी में उपलब्ध विविध गच्छोत्पत्ति आदि की नौंध नामक पत्रों में लोंकागच्छ की नागौरी लोंकागच्छ के समान ही एक दूसरी शाखा के उद्भव का उल्लेख करते हुए लिखा गया है १. ७०७ -: प्रवचन परीक्षा, भाग २ विश्राम सं० ८ पत्र सं० २६-३० । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002074
Book TitleJain Dharma ka Maulik Itihas Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj
PublisherJain Itihas Samiti Jaipur
Publication Year1995
Total Pages880
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size16 MB
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