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________________ ७०० ] । जैन धर्म का मौलिक इतिहास-भाग ४ आदि गृहस्थ जीवन के प्रत्येक हर्षप्रद प्रसंग पर निर्धारित धनराशि उगाहने अथवा भेंट स्वरूप स्वीकार करने आदि श्रमण जीवन के लिये अक्षम्य अपराध स्वरूप दूषित हीनाचार का स्पष्ट शब्दों में विवरण प्रस्तुत करते हुए लिखा है : ___ "५६ तत्पट्ट श्री पाणंदविमलसूरि सम्वत् १५७० वर्षे सूरिपदं । प्रथम शथलाचारी-पाटन मध्ये सर्व गच्छ शिथिलाचारीवीयावट्ट आजीविका करे, पाटन मध्ये पंच गच्छ प्राचार्य, ते समें श्रावके विनती करी-गच्छ त्यागो (वोसरावो), क्रिया उद्धार करो। ते समये लुंको श्रावक अरटवाड़ा नो ते आनन्द विमलसूरि (एकपातरियागच्छ की पट्टावली के अनुसार पूनमियांगच्छ के प्रानन्दविमलसूरि) पासे अठावीस सूत्र भण्यो। पछे पोतानी मेलें दीक्षा लीधी। सर्व देशे लुकागच्छ प्रवर्ताव्यो। जिनबिम्ब जल, पृथ्वी मय भंडार्या, सर्व ढुंढक थयो। तिवारे पाटण ने श्रावके, आनन्द विमलसूरिये क्रिया उद्धार कीधो ।........गुरुभाई ने वीयावट नव (8) कुल दीधां। बीजां कुल पूनमियां, खरतरा सर्वे जांच्या, तेहने दोधां । बीजा सर्व जल मध्ये घोल्यां। ............पछे आगरा मध्ये श्रावक, ३६०० (छत्तीस सैं) घर लुंका कीधा । इग्यारसें देहरा, जिनप्रतिमा भुय (भंवारा) मध्ये भंडारी छ । हलाबोल ढुंढक थयो। पछे श्री पूज्य आगरें गया। छट्ठ अट्ठम पारणे । एक बडेरो श्रावक लुंके दीक्षा लीधी, हानऋख्य, वानऋख्य ३०० ठाणां संघाते रहे छे । ............श्रीपूज्य छट्ट ने पारणें तेहने घरें, राख डोसीई वोहरावी, छास मध्ये भेली पारणों कीर्छ ।” साम्प्रदायिक व्यामोह एवं विद्वेष के वशीभूत हो उस समय के साधु अपने से भिन्न सम्प्रदाय अथवा गच्छ के साधुओं की हत्या करवा देने जैसे अमानवीय जघन्य दुष्कृत्यों को करने में भी तत्पर रहते थे, इस प्रकार का उल्लेख करते हुए तपागच्छ के विद्वान् पट्टावलीकार ने इसी पट्टावली में आगे लिखा है : "पछे श्रीपूज्य विहार करता देस प्रतिबोधतां त्रम्बावती नगरी पधार्या । तिहां खरतरगच्छे श्रीपूज्य नी महिमा देखी रगतियो मूक्युं । दिन प्रतें साधु मरण पामें । ठाणुं डेढ़ सौ मरण पाम्यां ।........" खरतरगच्छ के किसी कर्णधार द्वारा ५०० तपागच्छीय सम्धुओं की हत्या करवा दिये जाने का उल्लेख पंन्यास श्री कल्याणविजयजी महाराज द्वारा संपादित, ई० सन् १९४० में प्रकाशित तपागच्छ पट्टावली की पृष्ठ सं २०६ पर भी विद्यमान है, जो इस प्रकार है : "दिवसे-दिवसे गच्छ-ममत्व वधतु जतुं हतुं । खरतर तेमज तपागच्छना साधुओ वच्चे कदाग्रह वधी पड्यो हतो अने येन केन प्रकारेण एक बीजा अन्य १. तपागच्छ की हस्तलिखित पट्टावली, जिसकी फोटोप्रति प्राचार्यश्री विनयचन्द्र ज्ञान भंडार में हस्तलिखित पत्रों की क्रम सं० ४०० पर विद्यमान है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002074
Book TitleJain Dharma ka Maulik Itihas Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj
PublisherJain Itihas Samiti Jaipur
Publication Year1995
Total Pages880
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size16 MB
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