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________________ सामान्य श्रुतधर काल खण्ड २ ] लोकाशाह [ ७०१ गच्छीय साधुओनो पराभव करवामां रत रहेता। कहेवाय छे के आ ममत्वे एवं जोर पकड्युं के तेना मदमां कार्याकार्य- पण भान न रह्य । खरतरगच्छीय साधुअोए भैरवनी आराधना करी तेना द्वारा तपागच्छीय लगभग ५०० साधुओनो संहार कराव्यो । आ निर्दय समाचार सांभलतांज आणंदविमलसूरिजी- मन खिन्न बन्यं ।"१ इस प्रकार उस समय शिथिलाचार के गहन गर्त में फंसी-धंसी परम्पराओं के विद्वानों ने तत्कालीन साधु समुदाय में व्याप्त जिस घोर शिथिलाचार का स्पष्ट शब्दों में उल्लेख किया है, उसी शिथिलाचार के उन्मूलन हेतु जनमत को जागृत करने, विशुद्ध श्रमणाचार की पुनः प्रतिष्ठापना करने और धर्म के विशुद्ध प्रागमिक स्वरूप को पुनः उजागर कर प्रकाश में लाने के सदुद्देश्य से लोंकाशाह ने आगमों के आधार पर उपदेश देना, गहन-गम्भीर प्रागमिक तथ्यों से अोतप्रोत ५८ बोलों, प्रश्नों आदि सत्साहित्य के माध्यम से अभिनव धर्मक्रान्ति का सूत्रपात कर उसे सफल एवं देशव्यापी बनाने का अभियान प्रारम्भ किया तो द्रव्य परम्पराओं के तन-मन में उनके प्रति विद्वेषाग्नि भड़क उठी और उन परम्परागों के कर्णधारों एवं विद्वानों ने कर्त्तव्याकर्त्तव्य के भान को भुला लोकाशाह के विरुद्ध उपर्युल्लिखित रूप में विषवमन करना प्रारम्भ कर दिया। लोकाशाह के जीवनवृत्त के सम्बन्ध में अनेक प्रकार के भिन्न-भिन्न मनमाने कपोलकल्पित उल्लेख कर लोंकाशाह के जीवनवृत्त को विवादास्पद बनाने के प्रयास में किसी भी प्रकार की कोर-कसर नहीं रखी। उन्होंने लोकाशाह की आगमिक मान्यताओं के सम्बन्ध में भी अनेक प्रकार की भ्रान्तियां उत्पन्न करने के कलुषित उद्देश्य से स्वेच्छानुसार साहित्यिक कृतियों की रचनाएं की। शिथिलाचारग्रस्त द्रव्य परम्पराओं के विद्वानों द्वारा लोकाशाह के व्यक्तित्व, जीवन और कृतित्व के सम्बन्ध में प्रचलित की गई विभिन्न प्रकार की भ्रान्त धारणाओं को दृष्टिगत रखते हुए यहां यह परमावश्यक समझा जा रहा है कि लोकाशाह के जीवनवृत्त पर प्रकाश डालने से पहले लोकाशाह के सम्बन्ध में जो भिन्न-भिन्न प्रकार की मान्यताएं जैन वांग्मय में अद्यावधि उपलब्ध हुई हैं, उन्हें इतिहासप्रेमियों के विचारार्थ यथावत् रूप में प्रस्तुत किया जाय । १. उस समय कतिपय यति ही शिथिलाचारी नहीं हुए थे, अपितु सारा समुदाय ही शिथिल हो चुका था । गच्छपति और उनके निकटवर्ती कतिपय गीतार्थ अवश्य ही मूलगुणों को बचाये हुए थे. परन्तु अधिकांश यति वर्ग की स्थिति यहां तक बिगड़ चुकी थी कि क्रियोद्धार के बिना विशुद्ध जैन श्रमण मार्ग का अस्तित्व रहना मुश्किल था। __- निबन्ध निचय पृष्ठ २२४ । श्री कल्याणविजयजी महाराज, जालोर कृत । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002074
Book TitleJain Dharma ka Maulik Itihas Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj
PublisherJain Itihas Samiti Jaipur
Publication Year1995
Total Pages880
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size16 MB
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