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________________ सामान्य श्रुतधर काल खण्ड २ ] लोकाशाह रचनाकारों की रचनाओं में से कतिपय रचनाओं में "ढंढकरास" में प्रयुक्त अशिष्टअसभ्य गहस्पिद भाषा से भी अत्यधिक निकृष्ट अनार्योचित भाषा का प्रयोग किया गया है । सबसे बड़े आश्चर्य की बात तो यह है कि उन द्रव्य परम्पराओं के विद्वानों द्वारा निर्मित साहित्य में यह स्पष्ट उल्लेख है कि विक्रम की १५वीं शताब्दी से लेकर सोलहवीं शताब्दी के नौवें दशक के प्रारम्भकाल तक साधु समुदाय में शिथिलाचार घर किये रहा । यथा. ____ "५५-परणवण्णोत्ति, श्रीसुमतिसाधुसूरिपट्ट पंचपंचाशत्तमः श्री हेमविमलसूरि, यः क्रियाशिथिलसमुदाये वर्तमानोऽपि साध्वाचारानतिक्रान्त............।' __न च तेषां क्रियाशिथिलसाधुसमुदायावस्थाने चारित्रं न संभवतीति शंकनीयं, एवं सत्यपि गणाधिपतेश्चारित्रसंभवात् ।' १ "५६-तत्पट्टे श्री पाणंदविमलसूरिः .... । "तथा यो भगवान् क्रियाशिथिलबहुयतिजनपरिकरितोऽपि संवेगरंगभावितमातः...........।"२ "प्रानन्दविमलसूरि ने श्री राजविजयसूरि को कहा-तुम विद्वान् हो इसलिये हम तुम्हारे पास आये हैं, लुकामति जिनशासन का लोप कर रहे हैं, मेरा आयुष्य तो अब परिमित है, परन्तु तुम दोनों योग्य हो, विद्वान् हो और परिग्रह सम्बन्धी मोह छोड़ कर बहीवट की वहियां जल में घोल दी हैं, सवा मन सोने की मूर्ति अन्धकूप में डाल दी है, सवा पाव सेर मोतियों का चूरा करवा के फेंक दिया है, दूसरा भी सभी प्रकार का परिग्रह छोड़ दिया है।''3 इस प्रकार उस समय शिथिलाचार के गहन गर्त में फंसी परम्पराओं के विद्वानों ने तत्कालीन साधुसमुदाय में व्याप्त जिस शिथिलाचार का स्पष्ट शब्दों में उल्लेख किया है, उसी शिथिलाचार के सम्बन्ध में जनमत को जागृत करने, शिथिलाचार को समाप्त कर विशद्ध श्रमणाचार की पूनः प्रतिष्ठापना करने और धर्म के विशुद्ध आगमिक स्वरूप को पुन: प्रकाश में लाने के उद्देश्य से लोंकाशाह ने आगमों के आधार पर उपदेश देना, अभिनव धर्मक्रान्ति का सूत्रपात करना प्रारम्भ किया तो द्रव्य परम्पराएं चौंकी । तपागच्छ के ही एक विद्वान् पट्टावलीकार द्वारा तपागच्छ के ५६वें पट्टधर श्री आनन्दविमलसूरि के समय में एक प्रकार से सम्पूर्ण श्रमण वर्ग में व्याप्त घोर शिथिलाचार और प्रायः सभी परम्पराओं के प्राचार्यों-श्रमणों द्वारा बही वट के माध्यम से, अपने-अपने श्रमणोपासकों के घर से प्रतिवर्ष एवं पुत्रजन्म, विवाह १. पट्टावली समुच्चय भाग १, मुनि दर्शनविजयजी, पृ० ६८ २. वही ...........पृ० ६६ ३. पट्टावली परागसंग्रह, पृष्ठ १८२, ८३ (पं० श्री कल्याण विजयजी) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002074
Book TitleJain Dharma ka Maulik Itihas Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj
PublisherJain Itihas Samiti Jaipur
Publication Year1995
Total Pages880
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size16 MB
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