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[ जैन धर्म का मौलिक इतिहास-भाग ४ चिंतित हो माथ मुंडाने की सोची, नाई के घर जा माथा मुंडाया। कुम्हार के यहां गया और झोली पात्र लेकर वहां से फिरने लगा। एक दिन गांव के मन्दिर में गया। ५ रात वहां रहा । एक दिन बाधा-पीड़ा से पीड़ित हुआ, वमन करने को उठा, बाहर जाकर वमन किया, जरा साता हुई । पीछे आते समय थांबे से माथा टकराया। इससे ढूंढे का मन क्रोधित हुआ। जिनवर के वैर से वह नास्तिक हो गया। लोगों को उपदेश देता कि देहरा न मानो, देहरा जाना पाप है, आदि । धर्म चलाने को वह गुरु के पास गया, पगे लगा और खड़ा रहा । गुरु के पूछने पर कुमति बोला-'वीर के पट्टधर श्री सुधर्मा के शिष्य जम्बू जैसे हम जग में हैं, हमारे जैसा कोई नहीं परन्तु धर्म का मूल हम नहीं जानते । इस युग में तुम ज्ञानी हो, इस वास्ते धर्म बताओ, मैं इसीलिये आया हूं।"
गुरु बोले-"जिनपूजा, सद्गुरु की सेवा और जिन-पागम शुद्ध अर्थ, यही धर्म का मूल है। यह सुन कर कुमति के मन झाल-झाल उठ गई। उल्लू रवितेज को न सहे, वैसे ही कुमति जिनप्रतिमा को नहीं सहे। कुमति बोला- "गुरु ! पत्थर-पूजन से क्या सिद्धि होगी ? पत्थर-दल एकेन्द्रिय है, उसको पूजे कौन मुक्ति गया ? सुन कर गुरु ने शिर धुना । मधुर वचन से बोले-"अजाण ! प्रतिमा क्यों नहीं मानता ? जिनदर्शन विना सब क्रिया व्यर्थ है । “गुरु ने समझाया पर कुमति ने वैर नहीं छोड़ा ।............'
श्रमण भ० महावीर ने तीर्थप्रवर्तन काल में अपने प्रवचनों में और उनके प्रमुख शिष्य गणधरों ने प्रभु के प्रवचनों के आधार पर गुम्फित-दृब्ध द्वादशांगी प्रभृति पवित्र आगमों में धर्म और श्रमणाचार का किस प्रकार का स्वरूप संसार के प्राणिमात्र के कल्याण के लिये प्रकट-प्ररूपित अथवा प्रदर्शित किया, केवल एक इसी तथ्य को लोकाशाह ने अपने उपदेशों एवं ५८ बोलों आदि साहित्य में, मुमुक्षुत्रों के समक्ष रखा। द्रव्य परम्पराओं के कर्णधारों की दृष्टि में इस प्रकार का तथ्य प्रकाशन लोकाशाह का अक्षम्य घोर अपराध था। लोकाशाह द्वारा किये गये इस प्रकार के तथ्य प्रकटन से निहित स्वार्थस्वेच्छाचारी शिथिलाचारपरायण अनागमिक द्रव्य परम्पराओं के कर्णधारों के आय के स्रोत अवरुद्ध हो गये और द्रव्य परम्पराओं के उन कर्णधारों अथवा अनुयायियों ने लोंकाशाह को अपना प्राणापहारी शत्रु समझ करके न केवल लोकाशाह के विरुद्ध ही अपितु उनके माता-पिता के विरुद्ध भी उपरिलिखित रूप में अनर्गल प्रलाप कर विषवमन करना प्रारम्भ कर दिया । लोकाशाह की आलोचना एवं निन्दा के लक्ष्य से समय-समय पर निर्मित अपनी शताधिक रचनाओं में शिथिलाचारोन्मुखी अनागमिक द्रव्य परम्पराओं के नायकों ने लोकाशाह के एकमात्र आगमनिष्ठ पवित्र जीवन को, उनके आगमों पर आधारित पुनीत उपदेशों और आगमों में प्रतिपादित तथ्यों को प्रकाश में लाने वाली उनकी रचनामों को विवादास्पद बनाने और विकृत स्वरूप प्रदान करने के अनेक प्रयास किये। इस प्रकार के कलुषित लक्ष्य से निर्मित उन द्रव्य परम्पराओं के विद्वानों अथवा
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