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________________ सामान्य श्रुतधर काल खण्ड २ ] लोकाशाह [ ६९७ बोलों आदि साहित्य के कारण ही अपनी पूजा-प्रतिष्ठा एवं आय पर वज्राघात हुअा है और उत्तरोत्तर होता ही चला जा रहा है, इस विचार से द्रव्य परम्पराओं के कर्णधार तिलमिला उठे और लोंकाशाह को वे अपने प्राणापहारी शत्रु से भी अति भयंकर शत्रु समझकर लोंकाशाह के विरुद्ध अनेक प्रकार के षड्यन्त्र रचने लगे । लोकाशाह के विरुद्ध अनर्गल प्रलाप, प्रचार-प्रसार करने में शिथिलाचारियों ने किसी प्रकार की कोर-कसर नहीं रखी। तत्कालीन द्रव्य परम्पराओं के प्राचार्यों एवं श्रमणों द्वारा लोकाशाह के विरुद्ध जो साहित्य निर्मित किया गया, उसको यदि एकत्र किया जाय तो एक बड़ा अम्बार लग सकता है। लोकाशाह की आलोचनार्थ निर्मित किये गये तत्कालीन द्रव्य परम्परागों के अग्रगण्य विद्वानों के साहित्य की भाषा के स्तर को देखकर-पढ़कर तो ऐसा प्रतीत होता है कि वह भाषा किसी जैन की नहीं अपितु किसी हीनतम म्लेच्छ की ही होगी। लोकाशाह की आलोचना में प्रयुक्त की गई इस प्रकार की हीन स्तर की भाषा के अगणित शर्मनाक उदाहरणों में से एक उदाहरण यहां “ढुंढकरास" नामक कृति के सारांश के रूप में प्रस्तुत किया जा रहा है : ढूंढकरास (असत् कल्पना) ७ दोहों का सार :--म्लेच्छ देश में किसी कुलगांव में निर्धन लोग रहते थे। सब दरिद्र, उनमें दरिद्रों का एक सरदार रहता था। उसकी व्यभिचारिणी स्त्री की कुंख (कुक्षि) में कोई अपुण्य उत्पन्न हुआ। मां ने रात्रि में स्वप्न देखे, जो आगे बताये जाते हैं। ढाल १ का सार : प्रथम स्वप्न-गधा नयन में लूंण (नमक) डाले देखा। दूसरे स्वप्न में बिल्ली, तीसरे स्वप्न में कुत्ता, चतुर्थ स्वप्न में जरख पर बैठी डाकरण (डाकिनी), पांचवें स्वप्न में बल्लरमाला, छठे में फूटा हुआ कुंड, सातवें में खयुरो (खद्योत) उड़ता-पड़ता, आठवें स्वप्न में लटकती हुई लंगोट, नौवें स्वप्न में राख से भरा फूटा गागर, दसवें स्वप्न में अलेख कादव (कर्दम) वाला नाड, ग्यारहवें स्वप्न में लूंण का आगर, बारहवें स्वप्न में नारकी का मन्दिर, तेरहवें स्वप्न में कांकरा अगणित और चौदहवें स्वप्न में धुंअां रो गोट । ये चौदह स्वप्न देखकर धरणी (पति) से बोली। पाठक बुलाये, थावरिया (शनिश्चर का पुजारी) आया और बोला-"तुम्हारे बेटा होगा पर घटा (धृष्ट) और सब को अनिष्टकारी होगा। कपटी, क्रोधी होगा । सुनकर चिंतित हुए। पाठक को बिना दान. दिये अपमान कर निकाल दिया। दोहले में राख के ढिगले........ । ढाल दो से चार तक का सारांश-सं० १६८७ के अधिक मास की अमावश को चित्रा नक्षत्र और थावर वार में जन्म हुआ। पड़े हुए ढूंढे में जन्मने से ढूंढा नाम दिया । बड़ा हुआ, घर-घर भीख मांगने को जावे पर कोई कुक्कस भी नहीं देता। तब Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002074
Book TitleJain Dharma ka Maulik Itihas Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj
PublisherJain Itihas Samiti Jaipur
Publication Year1995
Total Pages880
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size16 MB
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