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________________ ६६६ ] [ जैन धर्म का मौलिक इतिहास-भाग ४ अनागमिक मान्यताओं के प्रति चतुर्विध संघ की प्रास्थाएं हिल उठों आगमों के आधार पर लोंकाशाह ने जो इस प्रकार की अभिनव धर्मक्रान्ति का सूत्रपात किया था वह स्वल्पकाल में ही लोकप्रिय हो गई। लोकाशाह के उपदेशों को सुनने के लिए मुमुक्षु भव्य जैनधर्मावलम्बियों के विशाल समूह उद्वेलित सागर की भांति दिशाओं-विदिशाओं से उमड़ने लगे। धर्म के विशुद्ध स्वरूप पर एकादशांगी के मूल पाठों, उद्धरणों के साथ पूर्ण प्रकाश डालने वाले लोंकाशाह के उपदेशों को सुनकर श्रोताओं के अन्तर्चक्षु उन्मीलित हो उठे। उनके मन, मस्तिष्क एवं हृदयपटल पर शिथिलाचारग्रस्त द्रव्य परम्पराओं के कर्णधारों द्वारा अपनीअपनी कपोलकल्पनाओं द्वारा प्रचलित–प्रसारित अनागमिक आडम्बरपूर्ण भांतिभांति की भौतिक मान्यताओं का जो घना कोहरा छा दिया गया था, वह लोंकाशाह द्वारा आगमिक ज्ञान से उद्योतित कोटि-कोटि सूर्य समप्रभ आध्यात्मिक आलोक के प्रसृत होते ही कर्पूरवत् उड़ने लगा। आगमों के अवगाहनानन्तर लोंकाशाह द्वारा प्रचारित एवं प्रसारित किये गये जैनागमों के निचोड़- निष्कर्ष के रूप में जैन धर्म और श्रमणाचार के विशुद्ध स्वरूप पर पूर्ण प्रकाश डालने वाले १३ प्रश्नों, ५८ बोलों, ३४ बोलों तथा "केहनी परम्परा" के शीर्ष वाले प्रश्नों आदि साहित्य का तो जैनधर्मावलम्बी जन-जन पर ऐसा चमत्कारी प्रभाव पड़ा कि न केवल श्रावकश्राविका वर्ग ने ही अपितु हर्षकीति जैसे आत्मार्थी श्रमणों तक ने विपुल परिग्रह संचित करने में अहर्निश निरत द्रव्य परम्पराओं के शिथिलाचारी कर्णधारों के विरुद्ध, उनकी अनागमिक मान्यताओं के विरुद्ध खुला विरोध करना और अपनी उन शिथिलाचारी परम्पराओं का परित्याग कर महान् धर्मक्रान्ति के सूत्रधार लोकाशाह द्वारा प्रकाश में लाये गये विशुद्ध आगमिक मुक्तिपथ का डंके की चोट की भांति प्रचार-प्रसार करना प्रारम्भ कर दिया। इस प्रकार लोकाशाह द्वारा प्रारम्भ की गई आगमानुसारिणी अभिनव धर्मक्रान्ति का ऐसा, चमत्कारकारी प्रभाव पड़ा कि द्रव्य परम्पराओं के शताब्दियों से सुदृढ़ एवं सशक्त बने गढ़ ढहने लगे, श्रमणाचार एवं धर्म के विशुद्ध स्वरूप पर शिथिलाचारग्रस्त द्रव्य परम्पराओं के नायकों द्वारा डाले गये, आच्छादित किये गये अनागमिक आडम्बरपूर्ण आवरणों के अम्बार प्रबल-प्रचण्ड झंझावात में उड़ती हुई आक की रूई के समान ओर-छोर-विहीन अन्तरिक्ष में उड़ने लगे । बहीबटों, प्राडम्बरपूर्ण विधि-विधानों, अनागमिक कर्मकाण्डों, मन्त्र-तन्त्र-मुहूर्तकथन, भविष्यकथन, औषधोपचार के माध्यम से द्रव्य परम्परानों को जो विपुल अर्थ की आय होती थी, वे आय के स्रोत अवरुद्ध होने लगे। शिथिलाचार में ग्रस्त द्रव्यपरम्पराओं के नामधारी श्रमणों के प्रति शनैः शनैः श्रावक-श्राविका वर्ग की श्रद्धा-आस्था घटने एवं अनास्था बढ़ने लगी । अभिनव धर्मक्रान्ति के सूत्रधार लोकाशाह के उपदेशों, प्रश्नों, प्रागमिक Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002074
Book TitleJain Dharma ka Maulik Itihas Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj
PublisherJain Itihas Samiti Jaipur
Publication Year1995
Total Pages880
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size16 MB
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