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________________ ६८० ] [ जैन धर्म का मौलिक इतिहास-भाग ४ गहिअट्ठा, पुच्छितट्ठा, अभिगतट्ठा, विरिणच्छिअट्ठा, अट्ठिमिजपेमाण रागरत्ता, अयमाउसो, निग्गंथे पावयणे अढे अयं परमठे सेसे अपठे, उसियफलिहा अवगंतेउरपरिघप्पवेसा, बहूहिं सीलव्वयगुणवेरमणपच्चक्खाणपोसहोववासेहि चाउद्दसट्ठमुदिट्ठपुण्णिमासिणीसुपडिपुण्णं पोसह सम्म अणुपालेमाणा, समणे णिग्गंथे फासुएसणिज्जेणं, असरणपाणखाइमसाइमेणं वत्थपडिग्गहकंबलपादपुंछणेणं, पीढ़फलगसिज्जासंथारएणं, अोसहभेसज्जेणं पडिलाभेमाणा, अहापरिग्गहं तवोकम्मेहि अप्पाणं भावेमाणा विहरंति ।" हवइ एह पालावामाहिं श्रावकनई समकित कह्य, व्रत कह्या, पोसह लेता कह्या, साधुनइं आहारादिक देता कह्या, तु इहांइ श्रावकनई श्री वीतरागई इम कां न कहिउं जेह "प्रासाद कराव्या, अनइ प्रतिमा भरावी, अनइ प्रतिमा पूजी।" तु इम जाणज्यो जे वीतरागई गणधरनइ वचनइं तु प्रासाद प्रतिमा नथी। जु हुती तु एह श्रावकना आलावामाहिं कहुत । एह त्रेतालीसमु बोल । ४४. च्युमालीसमु बोल : हवइं च्युमालीसमु बोल लिखीइ छइ । हवई श्रावक नई एहवी मनसा करवी कही छइ, ठाणांग मध्ये, ते आलावु लिखीइ छइ.---"तिहिं ठाणेहि समणोवासए महानिज्जरे महापज्जवसाणे भवति । तं जहा–कया णं अप्पं वा बहुं वा परिग्गहं परिच्चइस्सामि ? कया णं अहं मुंडेभवित्ता प्रागाराग्रो अणगारिश्र पव्वइस्सामि ? कया रणं अहं अपच्छिममारणंतियसलेहणा झूसणाजूसित्तभत्तपाणपडियाइक्खिते पाअोवगए काल अणवकंखमाणे विहरिस्सामि ? एवं समणसा सवयसा सकायसा जागरमाणे समंणोवासए महानिज्जरे महापज्जवसाणे भवति ।” श्रावकनई श्री वीतरागई एहवी मनसा श्री ठाणांगमाहिं कहीं । पणि इम न कहिउं-"प्रासाद प्रतिमा सेत्तुंज गिरिनार यात्रा करवी"-एहवी मनसा किहां सूत्रमाहिं करवी न कही । एह च्युमालीसमु बोल। ४५. पिस्तालीसमु बोल : हवइ पिस्तालीसमु बोल लिखइ छइ। श्री आचारांग ना बीजा अध्ययनइं बीजइ उद्देसइ श्री वीतरागे इम कहिउं, जे लोकइ एतलइ कारणइं प्रारम्भ करइ, अनइ साधु चारित्रीउ तु एतलइ कारणइं प्रारंभ करइ नहीं, करावइ नहीं, अनुमोदइ नहीं, ते अधिकार लिखीइ छइ–“एत्थ सत्थे पुणो पुणो से प्रायबले से नायबले से मित्तबले से पेच्चबले से देवबले से रायबले से चोरबले से अतिथिबले से किविणबले से समणबले-इच्चेइएहिं तिहिं विरूवरूवकज्जेहिं दंडसमायाणं सपेहाए भया कज्जति पावमोक्खोत्ति मन्नमाणे, अदुवा प्रासंसाए । तं परिन्नाय मेहावी व सयं एएहिं कज्जेहिं दंडं समारंभेज्जा, णेव अन्नं च एतेहिं एतेहिं कज्जेहिं दंडं समारंभावेज्जा, एएहिं कज्जेहिं दंडं समारंभंतेवि ण च अण्णे समरजाणेज्जा । एस मग्गे आयरिएहिं पवेदिते, जहेत्थ कुसले णो वा लुप्पिज्जासित्ति बेमि ।" ए आलावा माहिं इम कह्य जे-"लोक संसारनइं हेतुई हिंसा करइ छइ, अनइ मोक्षनइं हेतुइं पणि हिंसा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002074
Book TitleJain Dharma ka Maulik Itihas Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj
PublisherJain Itihas Samiti Jaipur
Publication Year1995
Total Pages880
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size16 MB
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