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________________ सामान्य श्रुतधर काल खण्ड २ ] लोकाशाह [ ६७३ निक्खेवा कह्या छइं । एकला आवश्यक उपरि तउ निक्खेवा कह्या नथी। डाहु हुइ ते विचारी जोज्यो । एह प्रोगणीसमु बोल । २०. वीसमु बोल : हवइ वीसमु बोल लिखीइं छइ। तथा केतला एक इम कहई छई जे'राजान वांदवा गया ते स्यु? घोड़ा हाथी लेइ गया ते स्यु? नगर फूटरा कराव्या ते स्यु ? तथा मल्लिनाथई भोहणघर कराव्युते स्यु ? तथा सुबुद्धि महतई फरस्या द्रह नुपाणी आणव्यु ते स्यु ? इत्यादि घणां बोल कहई छई। तेहना प्रत्युत्तर प्रीछउ । श्री सूअगडांग मध्ये अढारमइं अध्ययनइं किरियाठाणइ श्री वीतरागइं त्रिणि पक्ष कह्या । तिहां धर्म पक्ष ते सर्वइ सर्वविरति कही । अनइ बीजउ अधर्मपक्ष ते सर्वइ सर्वअविरति कही । अनइ बीजउ मिश्रपक्ष ते कांइ विरति कांइ अविरति कही। इम त्रिण पक्ष कहीइ । शरवालइ बे थोक कोधा । एक धर्म बीजउ अधर्म, श्रावकनी जेतली विरति तेतली धर्ममाहि घाली, अनइ जेतली अविरति ते अधर्म माहिं घाली। हवइं जोउनइं जे नाह्या, घोड़ा हाथी लेइ गया इत्यादि सर्व ते तेहनी अविरति छइ, अनइ अविरति तउ श्री वीतरागे अधर्म माहिं कही। अनइ विरति ते धर्म माहिं कही । जु साधुनइं विरति छइ तु साधु नाहइ नहीं, घोड़इं हाथीइं चढ़इ नहीं, तथा श्रावकनई जु पोसह माहि विरति छइ, तउ पोसह लीध इ नाहइ नही, घोड़इं हाथीइं चढ़इ नही । डाह हुइ ते विचारी जोज्यो। एह वीसमु बोल । २१. एकवीसमु बोल : हवइ एकवीसमु बोल लिखीइ छइ । तथा श्री भगवती मध्ये शतक पहिलइ, उद्देसक नवमइ एहवु कहिउं--जे श्रमण निर्ग्रन्थ आघाकर्मी आहार भोगवई तेह कन्हई छ: कायनी दया न हुइ । तु जोउनइं जेह कन्हई छः कायनी दया नुहि ते सूधउ धर्म किम कहीई ? डाहु हुइ ते विचारी जोज्यो। . 'ते आलावउ लिखीइ छइ-"अहाकम्मे णं भुजमाणे समणे निग्गंथे कि बंधइ ? किं पकरेइ ? कि चिणइ ? किं उवचिणइ ? गोयमा ! आउअ-वज्जाओ सत्त कम्मपगडीअो सिढिलबंधणबंधामो पकरेइ, जाव अणुपरियट्टइ। से केपट्टेणं जाव अहाकम्मे णं भुंजमाणे अपरियट्टइ ? गोप्रमा! अहाकम्मे णं भुजमाणे आयाए धम्म अइक्कममाणे पुढविकाए णावकंखइ, जाव तसकाय णावकंखइ, जेसिं पिय णं जीवाणं सरीरेहि आहारमाहरेइ, ते वि जीवे नावकंखइ तेण्डेणं गोप्रमा एवं वुच्चइ, अाहाकम्मे णं भुंजमाणे पाउअवज्जापो सत्त कम्मपगड़ीयो जाव अरगुपरियट्टइ । फासुएसणिज्जं भंते भुंजमाणे समणे निग्गंथे किं बंधइ जाव णो उवचिणाइ ! गोप्रमा ! फासुएसणिज्जं भुजमाणे समणे रिणग्गंथे पाउअ-बज्जायो सत्त कम्मपगडीयो घणिप्रबंधणबद्धाो सिढिलबंधणबद्धाओ पकरेइ । हंहा संवुड़ेणं नवरं प्राउन च णं कम्मं सिन बंधेइ सिम नो बंधेइ सेसं तहेव जाव Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002074
Book TitleJain Dharma ka Maulik Itihas Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj
PublisherJain Itihas Samiti Jaipur
Publication Year1995
Total Pages880
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size16 MB
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