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________________ ५० ] [ जैन धर्म का मौलिक इतिहास-भाग ४ प्रारम्भ हए शैव अभियान के युग में निम्न जाति अथवा वर्ण के नाम से अभिहित किये जाने वाले बहुसंख्यक प्रजाजन संभवतः अपने प्रति जैनों तथा बौद्धों के उपेक्षापूर्ण अथवा उदासीनतापूर्ण व्यवहार के परिणामस्वरूप शनैः शनैः जैन एवं बौद्ध संघ से उदासीन हो गये हों और अपनी इस उदासीन वृत्ति के परिणामस्वरूप निम्न वर्ण अथवा जातियों के लोगों ने शैव अभियान के समय विभेदविहीन एकेश्वरवादी अभिनव समाज की संरचना में शैवों को सक्रिय सबल सहयोग देते हुए जैन धर्म एवं बौद्ध धर्म के विरुद्ध शैव संघर्ष में तन-मन से पूरा सहयोग दिया हो, सामूहिक रूप से एक जुट हो तामिलनाडु प्रदेश से जैन और बौद्ध दोनों ही धर्मों का अस्तित्व तक मिटाने का प्रयास किया हो। ये तीन प्रमुख कारण थे, जिनके परिणामस्वरूप जैन श्रमणों के विरुद्ध घृणा का प्रचार करने और तामिलनाडु प्रदेश से जैन धर्म का अस्तित्व तक मिटा देने के संकल्प के साथ जैनधर्मावलम्बियों के विरुद्ध संघर्ष के लिए कटिबद्ध होना शैवों के लिये अनिवार्य हो गया था। राजा, प्रजा, राजतन्त्र और अर्थतन्त्र पर उस समय अपना पूर्ण वर्चस्व रखने वाले दक्षिण के उस कालावधि के सर्वाधिक शक्तिशाली जैन संघ को, उसके सर्वव्यापी वर्चस्व को बिना समाप्त किये, बिना क्षीण अथवा निर्बल-निष्प्रभाव किये शैवों के लिये किसी भी दशा में अपने एकेश्वरवादी, विभेदविहीन अभिनव सुदृढ़ एवं चिरस्थायी शैव समाज की सम्पूर्ण तामिलनाडु प्रदेश में स्थापना, प्रचार तथा प्रसार के कार्य में सफलता का प्राप्त होना वस्तुतः संभव ही नहीं था। उपरिवरिणत तीन कारणों से तिरु ज्ञानसम्बन्धर, तिरु अप्पर आदि प्रमुख शैव सन्तों ने उस समय के महान् प्रभावशाली एवं त्यागी तपस्वी जैनाचार्यों के विरुद्ध जनमानस में घृणा उत्पन्न करने के साहित्यिक अभियान के साथ-साथ जैन श्रमणों के सामूहिक संहार का अभियान प्रारम्भ किया ।' प्रारम्भ में ही अनपेक्षित आशातीत सफलता ने शैवों के उत्साह को शतगुरिणत कर उसे धर्मोन्माद में परिवर्तित कर दिया। उस धर्मोन्माद ने ऐसा भीषण एवं व्यापक रूप धारण किया कि सम्पूर्ण तामिलनाडु प्रदेश के ग्राम-ग्राम, नगरनगर एवं डगर-डगर में जैन धर्मावलम्बियों को बलप्रयोगपूर्वक शैव बनने के लिये बाध्य किया गया। जिन जैनों ने धर्म-परिवर्तन की अपेक्षा प्राण-त्याग को श्रेष्ठ समझा, उन धर्म के प्रति प्रगाढ़ आस्थावान् जैनों को तत्काल मौत के घाट उतार दिया गया। उनके घरों को लूट लिया गया। चारों ओर लूटमार और नरसंहार का ताण्डव नृत्य होने लगा। तमिलनाडु की सीमा पर बसने वाले अधिकांश जन अपना घरबार, सर्वस्व वहीं छोड़ अपने धर्म और प्राणों की रक्षा के लिये चुपचाप १. जैन धर्म का मौलिक इतिहास भाग, ३, पृष्ठ ४८७-८६ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002074
Book TitleJain Dharma ka Maulik Itihas Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj
PublisherJain Itihas Samiti Jaipur
Publication Year1995
Total Pages880
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size16 MB
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